Edit/Op-Ed

क्या रमज़ान को अपनी ज़बान की ईद समझ लें?

Fatima Farheen for BeyondHeadlines

मौजूदा वक़्त ने हमें इतना समझदार बना दिया है कि हमारी नज़र हर किसी की तरफ़ शक से उठती है. भीख मांगने वालों को हम कई बार यह सोच कर नज़रअंदाज़ कर देते हैं  कि यह ज़रूर किसी गैंग में शामिल होगा या भीख मांगना इसका धंधा होगा.

कुछ हमारी ज़बरदस्ती की समझदारी है या फिर ‘ट्रैफ़िक सिग्नल’ जैसी फ़िल्मों की सीख, पैसा देना तो दूर की बात है, अब हम उनकी मदद खाने से भी नहीं करते और इसका नतीजा यह है कि भीख मांगकर अपना गुज़ारा करने वाले लोग दो वक़्त की रोटी से भी महरूम होते जा रहे हैं.

कुछ हमारी बेरुख़ी की वजह से भूख से मर जाते हैं तो कुछ किसी के आगे हाथ ना फैलाने की ख़ुद्दारी से.

मैं उस वक़्त शर्म से पानी पानी हो गई जब कुछ ही दिनों पहले मग़रिब की अज़ान के वक़्त सड़क के किनारे एक ग़रीब फ़क़ीर को सिर्फ़ पानी से रोज़ा खोलते देखा. मेरी नज़र यह तलाश करने लगी कि शायद उस के आस-पास कुछ खाने का सामान दिख जाए, लेकिन सिवाए पानी की बॉटल के उस के पास कुछ नहीं दिखा.

मैं जब तक उस ग़रीब रोज़ेदार की मदद की सोचती, मेरा रिक्शा बहुत आगे निकल चुका था, क्यूंकि मैं ख़ुद भी रोज़ा थी और  इफ़्तार की एक दावत में पहुंचना था.

इफ़्तार करते वक़्त मेरा ध्यान उस फ़क़ीर की तरफ़ लगा था जिसके आगे खाने का कुछ भी नहीं था और मेरे आगे का दस्तरख़्वान ढेर सारी चीज़ों से भरा पड़ा था.

इस वाक़्ये ने मुझे बहुत झकझोर के रख दिया. मैं ख़ुद से सवाल करने लगी क्या इस्लाम यही सिखाता है कि पूरा रमज़ान हम दावत खाने-खिलाने में और अपना दस्तरख़्वान हर रोज़ चौड़ा करने में गुज़ार दें.

लोग कहते हैं कि इस्लाम बहुत प्रैक्टिकल मज़हब है तो क्या ये जायज़ है कि हम रमज़ान के महीने को अपनी ज़बान की ईद समझ लें.

फ़ेसबुक पर लम्बे-लम्बे पोस्ट लिखें, व्हाट्सएप्प पर हर रोज़ नई-नई डिशेस डिस्कस करें और जब अज़ान हो तो अपने-अपने घरों के दरवाज़ें बंद कर के चने, पकौड़ियों और दूसरी ढेर सारी चीज़ों की तारीफ़ करते हुए इफ़्तार करें.

इसका एक दूसरा पहलू भी है. रमज़ान के महीने में आप सभी ने ये बात ग़ौर की होगी कि ज़्यादातर चीज़ों की क़ीमतें बढ़ जाती हैं. यहां तक की 7-8 रुपए में मिलने वाली एक कप चाय भी लगभग 10-12 रुपए में मिलने लगती है. फल और रमज़ान से जुड़ी दूसरी चीज़ों की तो बात ही करना बेकार है.

दुनिया भर के शहरों में ख़ासकर यूरोप के लगभग हर शहर में दिसंबर के महीने में क्रिसमस सेल लगता है जब सारी चीज़ें हद से ज़्यादा सस्ती होती हैं. आप शायद सोच रहे होंगे कि सेल के ज़रिए बड़ी-बड़ी कंपनियां ज़्यादा सामान बेचकर ज़्यादा मुनाफ़ा कमाती होंगी.

लेकिन शायद नहीं. उनका मक़सद ये होता है कि उनके सबसे अहम त्यौहार क्रिसमस के दौरान चीज़ें इतनी सस्ती बेचो कि ग़रीब से ग़रीब आदमी भी किसी चीज़ से महरूम न रहे और वो त्यौहार का पूरा मज़ा उठा सके.

ये जज़्बा अगर ईसा के मानने वालों में है तो फिर मोहम्मद के मानने वालों में ये जज़्बा क्यों नहीं. और ऐसा भी नहीं कि थोक में चीज़ों की क़ीमत अचानक रमज़ान में बढ़ जाती है. आप अगर थोड़ी सी मेहनत करें तो आपको पता चल जाएगा कि रमज़ान के महीने में महंगाई सिर्फ़ मुस्लिम महल्लों में ही बढ़ती है.

ये हमारी सोच के बारे में बहुत कुछ बयान करता है.

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