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कपड़ों पर लगे दाग़ अगर अच्छे हैं तो चेहरे के दाग़ क्यों नहीं!

Afshan Khan, BeyondHeadlines

मैंने ग़ौर किया है कि जब मैं मेकअप करके, तैयार होने में खूब समय लगाकर निकलती हूं तो ज़्यादा लोग मुझसे बात करते हैं. जिस दिन मैं तैयार नहीं होती, बिना मेकअप के निकल जाती हूं उस दिन मुझे लोग सिर्फ़ टोकते नहीं हैं, बल्कि बहुत से दोस्त तो मेरी तरफ़ तवज्जो ही नहीं देते…’’

ये कहना है दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक छात्रा का जिनसे सवाल किया गया था कि इन मेकअप प्रोडक्ट्स का असर क्या उनकी ज़िंदगी पर पड़ा है?

जिस मार्केट, गली या मॉल से गुज़रो, बस वही सलाह नज़र आती है कि चेहरे के दाग़ धब्बे हटाएं, ये क्रीम लगाएं वो क्रीम लगाएं, ये ट्रीटमेंट कराएं वो ट्रीटमेंट कराएं. ब्यूटी प्रोडक्ट्स ने औरतों की दुनिया में जो सनसनी और तबाही फैलाई है, उतना नुक़सान तो गली के स्टॉकर्स ने भी नहीं किया होगा.

हर बार औरतों को नए नए ट्रेंड्स, मेकअप के तरीक़े, लेयर दर लेयर अप्लाई होने वाले प्रोडक्ट्स के बारे में सलाह दे देकर उनका ब्रेन वाश किया जाता है.

कभी समय था कि जब कपड़ों का फैशन बदलता था, लेकिन अब तो चेहरे की शेप और इसको रंगने के फैशन में भी नएनए ऊट-पटांग बदलाव रहे हैं.

कभी काजल आंख के अंदर लगाने का दौर आता है तो कभी बाहर. कभी कपड़ों के रंग से चेहरे की पुताई की जाती है तो कभी बिल्कुल अलग रंगों से. चेहरे पर इतनी लीपापोती की जाती है कि इंसान पहचान ही पाए कि ये औरत का चेहरा है या कोई साग सब्ज़ी.

हर दिन विज्ञापनों में पढ़ने को मिल जाता है कि चेहरे का कोई भी दाग़ हो, इस प्रोडक्ट को लगाने से चला जाएगा या फलां मेकअप किट से छुपा लें. अब अगर किसी के चेहरे पर कोई दाना, कील या मुहांसे हैं और उसको डॉक्टर को दिखाकर ठीक किया जाए तो समझ आता है या उसके लिए कोई औषधि समान क्रीम आदि की बात पल्ले पड़ भी जाए, लेकिन ये बात कौन समझाएगा कि चांद में दाग़ सबके लिए साधारण बात है. लेकिन एक लड़की के चेहरे पर ज़रा सा दाग़ खटक जाता है. सारी सौंदर्य कंपनियां दरवाज़ा खटखटा कर पूछने लगती हैं. क्या हम आपके दाग़ छिपाने में आपकी मदद कर सकते हैं?

जब कपड़ों पर लगे दाग़ अच्छे बताए जा सकते हैं तो कोई  क्यों नहीं हिम्मत करता है. ये बात कहने को कि ये चेहरे पर महज़ दाग़ ही तो है, किरदार तो तुम्हारा चमका हुआ है.

क्यों नहीं महिलाओं को केवल फैशन और मेकअप के अलावा दूसरे पहलुओं से देखा जाता है? क्या औरत होने का मतलब है सुंदर दिखना. और सुंदरता का मापदंड कौन तय करेगा? ये विज्ञापन? जो गोरा काला का अंतर बताते रहते हैं?

भारत में लड़कियों की ज़िन्दगी से इन सौंदर्य विज्ञापनों ने खूब खिलवाड़ किया है. बचपन से बच्चियां यही विज्ञापन देख देखकर बड़ी होती हैं. ये मान लेती हैं कि यदि उनका रंग उजला है तो बस वो असफलता का मुंह नहीं देखेंगी. और जब भी कभी असफल होती हैं तो समझ नहीं पातीं कि वजह थी क्या.

दूसरी तरफ़ जिन लड़कियों का रंग सफ़ेद नहीं होता वो मान बैठती हैं कि उनकी ज़िंदगी का बड़ा फ़ैसला तो भगवान ने ही कर दिया है, लिहाज़ा ये तो वो खुद को दूसरी फ़ील्ड में क़ाबिल साबित करते करते थक जाती हैं या फिर इंफिरियोरिटी कॉम्प्लेक्स का शिकार हो जाती हैं. क्यों इस मुद्दे पर गिने चुने लोग ही बात करते हैं. देश की लड़कियों की त्वचा को ख़राब करने वाली कंपनियों को आख़िर कैसे इजाज़त दे दी जाती है कि हानिकारक केमिकल से बना पदार्थ बेच सकते हैं.

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