Edit/Op-Ed

मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का उभार

By Javed Anis

इस साल के अंत तक मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं. लेकिन इधर पहली बार दोनों प्रमुख पार्टियों से इतर राज्य के आदिवासी समुदाय में स्वतन्त्र रूप से सियासी सुगबुगाहट चल रही है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी तो पहले से ही थी जिसका कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में अहम् रोल माना जाता है. अब “जयस” यानी जय आदिवासी युवा शक्ति जैसे संगठन भी मैदान में आ चुके हैं, जो विचारधारा के स्तर पर ज्यादा शार्प है और जिसकी बागडोर युवाओं के हाथ में हैं.

जयस की सक्रियता दोनों पार्टियों को बैचैन कर रही है. डेढ़ साल पहले आदिवासियों के अधिकारों की मांग के साथ शुरू हुआ यह संगठन आज अबकी बार आदिवासी सरकार के नारे के साथ 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर  रहा है.

जयस द्वारा निकाली जा रही “आदिवासी अधिकार संरक्षण यात्रा” में उमड़ रही भीड़ इस बात का इशारा है कि बहुत ही कम समय में यह संगठन प्रदेश के आदिवासी सामाज में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहा है.

जयस ने लम्बे समय से मध्य प्रदेश की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे आदिवासी समाज को स्वर देने का काम किया है. आज इस चुनौती को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां महसूस कर पा रही हैं. शायद इसीलिए जयस के राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा कह रहे हैं कि “आज आदिवासियों को वोट बैंक समझने वालों के सपने में भी अब हम दिखने लगे हैं.”

आदिवासी वोटरों को साधने के लिए आज दोनों ही पार्टियों को नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ रही है. शिवराज अपने पुराने हथियार “घोषणाओं” को आज़मा रहे हैं तो वहीं कांग्रेस आदिवासी इलाक़ों में अपनी सक्रियता और गठबंधन के सहारे अपने पुराने वोट-बैंक को वापस हासिल करना करना चाहती है.

मध्य प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है. राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा क़रीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं, जहां पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है. 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में भाजपा को 32 तथा कांग्रेस को 15 सीटों मिली थी.

 

वर्ष कुल सीटें भाजपा  

कांग्रेस

 

2003 41 34 2
2008 47 29 17
2013 47 32 15

दरअसल मध्य प्रदेश में आदिवासियों को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है, लेकिन 2003 के बाद से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया जब आदिवासियों के लिए आरक्षित 41 सीटों में कांग्रेस को महज़ 2 सीटें ही हासिल हुई थीं. जबकि भाजपा के 34 सीटों पर कब्ज़ा जमा लिया था. 2003 के चुनाव में पहली बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराई थी जो कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने में एक प्रमुख कारण बना.

वर्तमान में दोनों ही पार्टियों के पास कोई ऐसा आदिवासी नेता नहीं है, जिसका पूरे प्रदेश में जनाधार हो. जमुना देवी के जाने के बाद से कांग्रेस में प्रभावी आदिवासी नेतृत्व नहीं उभर पाया है. पिछले चुनाव में कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे अपना असर दिखाने में नाकाम रहे. खुद कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में ही कांग्रेस सभी आरक्षित सीटें हार गईं थी.

वैसे भाजपा में फग्‍गन सिंह कुलस्‍ते, विजय शाह, ओम प्रकाश धुर्वे और रंजना बघेल जैसे नेता ज़रूर हैं, लेकिन उनका व्यापक प्रभाव देखने को नहीं मिलता है.

इधर आदिवासी इलाक़ों में भाजपा नेताओं के लगातार विरोध की ख़बरें भी सामने आ रही हैं, जिसमें मोदी सरकार के पूर्व मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते और शिवराज सरकार में मंत्री ओम प्रकाश धुर्वे शामिल हैं. ऐसे में जयस की चुनौती ने भाजपा की बैचैनी को बढ़ा दिया है और कांग्रेस भी सतर्क नज़र आ रही है.

2013 में डॉ. हीरा लाल अलावा द्वारा जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) का गठन किया गया था, जिसके बाद इसने बहुत तेज़ी से अपने प्रभाव को क़ायम किया है.

पिछले साल हुए छात्र संघ चुनावों में जयस ने एबीवीपी और एनएसयूआई को बहुत पीछे छोड़ते हुए झाबुआ, बड़वानी और अलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल ज़िलों में 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आज पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल ज़िलों अलीराजपुर, धार, बड़वानी और रतलाम में “जयस” की प्रभावी उपस्थिति लगातार है. यह क्षेत्र यहां भाजपा और संघ परिवार का गढ़ माना जाता था.

दरअसल “जयस” की विचारधारा आरएसएस के सोच के ख़िलाफ़ है. ये खुद को हिन्दू नहीं मानते है और इन्हें आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी ऐतराज है. खुद को हिंदुओं से अलग मानने वाला यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत संस्कृति के संरक्षण और उनके अधिकारों के नाम पर आदिवासियों को अपने साथ जोड़ने में लगा है. यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत पहचान, संस्कृति के संरक्षण व उनके अधिकारों के मुद्दों को प्रमुखता उठता है.

“जयस” की प्रमुख मांगें—

  •  5वीं अनुसूचि के सभी प्रावधानों को पूरी तरह से लागू किया जाए.
  •  वन अधिकार क़ानून 2006 के सभी प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए.
  •  जंगल में रहने वाले आदिवासियों को स्थायी पट्टा दिया जाए.
  •  ट्राइबल सब प्लान के पैसे अनुसूचित क्षेत्रों की समस्याओं को दूर करने में खर्च हों.

“जयस” का मुख्य ज़ोर 5वीं अनुसूचि के सभी प्रावधानों को लागू कराने में है. दरअसल भारतीय पांचवी अनुसूचि की धारा —244(1) के तहत आदिवासियों को विशेषाधिकार दिए गए हैं जिन्हें सरकारों ने लागू नहीं किया है.

मध्य प्रदेश में आदिवासी की स्थिति ख़राब है. शिशु मृत्यु और कुपोषण सबसे ज्यादा आदिवासी बाहुल्य ज़िलों में देखने को मिलता है. इसकी वजह यह है कि सरकार के नीतियों के कारण आदिवासी समाज अपने परम्परागत संसाधनों से लगातार दूर होता गया है. विकास परियोजनाओं की वजह से वे व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और इसके बदले में उन्हें विकास का लाभ भी नहीं मिला. वे लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गए हैं.

भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट ऑफ़ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014” के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है, जबकि मध्य प्रदेश में यह दर 113 है.

इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है, वही प्रदेश में यह दर 175 है. आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है.

रिर्पोट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है, जबकि मध्य प्रदेश में यह दर 24.6 है. इसी तरह से एक गैर-सरकारी संगठन बिंदास बोल संस्था द्वारा जारी किए गए अध्यन रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश के आदिवासी ज़िलों के क़रीब 40 प्रतिशत बच्चे अभी से स्कूल नहीं जा रहे हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि पिछले कुछ सालों  आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों की संख्या में क़रीब 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी तो हुई है, लेकिन मानकों के आधार पर यहां अभी भी क़रीब 60 प्रतिशत टीचरों की कमी है.

ज़ाहिर है सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की लगातार की गई अवहेलना के कारण ही आज आदिवासी समाज गरीबी कुपोषण और अशिक्षा की जकड़ में बंधा हुआ है.

दूसरी तरफ़ स्थिति ये है कि पिछले चार सालों के दौरान मध्य प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण के लिए आवंटित बजट में से 4800 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं कर पाई है. 2015 में कैग द्वारा जारी रिपोर्ट में भी आदिवासी बाहुल्य राज्यों की योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सवाल उठाए गए थे.

उपरोक्त परिस्थितियों ने ‘जयस’ जैसे संगठनों के लिए ज़मीन तैयार करने का काम किया है. इसी परिस्थिति का फ़ायदा उठाते हुए ‘जयस’ अब आदिवासी बाहुल्य विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की तैयारी में है. इसके लिए वे आदिवासी समूहों के बीच एकता की बात कर रहे हैं जिससे राजनीतिक दबाव समूह के रूप में चुनौती पेश की जा सके.

डा. अलावा कहते हैं कि “जयस एक्सप्रेस का तूफ़ानी कारवां अब नहीं रुकने वाला है. हमने बदलाव के लिए बग़ावत की है और किसी भी क़ीमत पर बदलाव लाकर रहेंगे.”

‘जयस’ ने 29 जुलाई से आदिवासी अधिकार यात्रा शुरू की है जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जुड़ भी रहे हैं. ज़ाहिर है अब ‘जयस’ को हलके में नहीं लिया जा सकता है. आने वाले समय में अगर वे अपने इस गति को बनाए रखने में कामयाब रहे तो मध्य प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.

आदिवासी बहुल ज़िलों में ‘जयस’ की लगातार बढ़ रहे प्रभाव को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा दोनों के रणनीतिकार उलझन में हैं. स्थिति सुधारने के लिए भाजपा पूरा ज़ोर लगा रही है. इसके लिए शिवराज सरकार ने 9 अगस्त आदिवासी दिवस को आदिवासी सम्मान दिवस के रूप में मनाया है जिसके तहत  आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम हुए हैं.

इस मौक़े पर धार में आयोजित एक कार्यक्रम में खुद मुख्यमंत्री ने कई सारी घोषणाएं की हैं, जिसमें राज्य के कुल बजट का 24 फ़ीसद आदिवासियों पर ही खर्च करने, आदिवासी समाज के लोगों पर छोटेमोटे मामलों के जो केस हैं उन्हें वापस लेने, जिन आदिवासियों का दिसंबर 2006 से पहले तक वनभूमि पर क़ब्ज़ा है उन्हें सरकार ने वनाधिकार पट्टा देने, जनजातीय अधिकार सभा का गठन करने जैसी घोषणाएं की हैं. इस दौरान उन्होंने “जयस” पर निशाना साधते हुये कहा कि “कुछ लोग भोले-भाले आदिवासियों को बहका रहे हैं, पर उनके बहकावे में आने की ज़रूरत नहीं है.”

भाजपा द्वारा जयस के पदाधिकारियों को पार्टी में शामिल होने का ऑफर भी दिया जा चुका है, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया.

डॉ. हीराराल अलावा ने साफ़ तौर पर कहा है कि “भाजपा में किसी भी क़ीमत पर शामिल नहीं होंगे, क्योंकि भाजपा धर्म-कर्म की राजनीति करती है, उनकी विचारधारा ही अलग है. वे आदिवासियों को उजाडऩे में लगे हैं.”

वहीं कांग्रेस भी आदिवासियों को अपने खेमे में वापस लाने के लिए रणनीति बना रही है. इस बारे में कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें पार्टी से बीते चुनावों से दूर हुए इस वोट बैंक को वापस लाने के बारे में सुझाव दिए हैं.

कांग्रेस का ज़ोर आदिवासी सीटों पर वोटों के बंटवारे को रोकने की है. इसके लिए वो छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती है. अगर कांग्रेस ‘गोंडवाना पार्टी’ और जयसको अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही तो इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. हालांकि ये आसन भी नहीं है.

कांग्रेस लम्बे समय से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौता करना चाहती है लेकिन अभी तक बात बन नहीं पाई है. उलटे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने शर्त रख दी है कि ‘उनका समर्थन कांग्रेस को तभी मिलेगा जब उसका सीएम कैंडिडेट आदिवासी हो.’

कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए गठबंधन की राहें उतनी आसान भी नहीं हैं जितना वो मानकर चल रही थी. आने वाले समय में मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का यह उभार नए समीकरणों को जन्म दे सकता है और इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ना तय है. बस देखना बाक़ी है कि भाजपा व कांग्रेस में से इसका फ़ायदा कौन उठाता है या फिर इन दोनों को पीछे छोड़ते हुये सूबे की सियासत में कोई तीसरी धारा उभरती है.

(जावेद अनीस भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे javed4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]