BeyondHeadlines History Desk
देवबंद : जब कभी आपका पहली बार दारूल उलूम देवबंद जाना होगा तो वहां के छात्र आपको सबसे पहले उस जगह लेकर जाएंगे, जहां पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. से जुड़ा एक यादगार तोहफ़ा रखा हुआ है. ये छात्र आपको बताएगा कि ये रूमाल पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. के मुबारक हाथों से छुआ हुआ है.
लेकिन यहां उर्दू में लिखी हुई जानकारी कुछ और ही बताती है. इसके मुताबिक़ ‘ये रूमाल-ए-मुबारक पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. के जुब्बा-ए-मुबारक से कई साल तक मिला हुआ रहा. ये दौलत उस्मानिया का तोहफ़ा है. तुर्की के सुलतान हर साल उस जुब्बा-ए-मुबारक की ज़ियारत किया करते थे, जो तुर्की के ख़ज़ाने में आज भी महफ़ूज़ है. जंग-ए-बलक़ान के ज़माने में दारूल उलूम देवबंद की आर्थिक मदद से प्रेरित होकर सन् 1913 में तुर्की के सुलतान ने दारूल उलूम को ये तबर्रूक भेंट किया.’
वहीं दारूल उलूम देवबंद के इतिहास पर प्रकाशित व सैय्यद महबूब रिज़वी द्वारा संकलित किताब ये बताती है कि, जुब्बा-ए-मुबारक पर हिफ़ाज़त के मद्देनज़र महीन कपड़े का ग़िलाफ़ रख दिया जाता है, जिसमें जुब्बा-ए-मुबारक साफ़ नज़र आता है. यही जुब्बा-ए-मुबारक कभी-कभी ख़ास लोगों को तुर्की के सुलतान की तरफ़ से तबर्रूक के तौर पर हदिया कर दिया जाता था. ये जुब्बा-ए-मुबारक इस्तांबुल के तोपकापी म्यूज़ियम में रखा हुआ है.
किताब में लिखी जानकारी ये भी बताती है कि, दारूल उलूम देवबंद के मौजूदा कुतुब खाना की इमारत में ये हदिया-ए-ख़ैर व बरकत खलील ख़ालिद बक ने माजिद रहमतुल्लाह अलै. के सामने बहुत अदब से पेश किया. उस वक़्त कलकत्ता के एक बड़े बिज़नेसमैन हाजी मो. याक़ूब साहब भी सफ़ीर-ए-तुर्की के साथ दारूल उलूम में मौजूद थे.
लेकिन जब इस सिलसिले में इस्तांबुल से लौटे कुछ पत्रकारों से बात की गई तो उनका कहना है कि इस्तांबुल के तोपकापी म्यूज़ियम में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. का कोई जुब्बा-ए-मुबारक नहीं रखा गया है. यहां पैग़म्बर की दाढ़ी के बाल, 19 मार्च 625 को उहुद की लड़ाई के दौरान टूटे हुए पैग़म्बर सल्ल. के दांत, उनके पैरों के निशान, पत्र, धनुष और तलवार ज़रूर नज़र आते हैं.
मदरसे से पढ़े पत्रकार मो. अलामुल्लाह बताते हैं कि, पूरी दुनिया में इस तरह के रूमाल और खाना-ए-काबा के ग़िलाफ़ के पीछे सियासत की कहानी भी बहुत दिलचस्प है. जब पाकिस्तान में एक जमाअत ने पहली बार इलेक्शन में उतरने का फ़ैसला किया तो पूरे पाकिस्तान में वहां के मुसलमानों से जज़्बाती संबंध बनाने के लिए ग़िलाफ़-ए-काबा की नुमाईश कराई गई थी. लेकिन इतिहास ये बताता है कि ये ग़िलाफ़ पाकिस्तान में ही तैयार हुआ था और उसे काबे को पहनाया भी नहीं गया था.
दारूल उलूम देवबंद का नौदरा
दारूल उलूम देवबंद के नौदरा का ताल्लुक़ भी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. के साथ जोड़कर देखा जाता है. बताया जाता है कि हज़रत मौलाना रफ़ीउद्दीन रहमतुल्लाह अलै. जब इस इमारत की तामीर कराने जा रहे थे तब उनके ख़्वाब में खुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने आकर फ़रमाया कि, “ये अहाता तो बहुत मुख्तसर है.” और फिर ये फ़रमा कर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. ने एक नक़्शा खींचकर बतलाया कि इन निशानों पर तामीर की जाए. ख़्वाब में देखे गए इस नक़्शे के मुताबिक़ बुनियाद खुदवाकर इसकी तामीर कराई गई.
इस नौदरा का इतिहास बताता है कि ये दारूल उलूम देवबंद की सबसे पहली इमारत है. इसे बनाने में आठ साल का वक़्त और उस ज़माने के 2300 रूपये खर्च हुए. उस वक़्त मौलाना रफ़ीउद्दीन रहमतुल्लाह अलै. दारूल उलूम देवबंद के मोहतमिम थे.