History

जानिए, मौलाना मोहम्मद अली जौहर की मौत के बाद क्या हुआ?

Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

आज से ठीक 88 साल पहले आज ही के दिन 4 जनवरी, 1931 को भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी व मुजाहिद-ए-आज़म मौलाना मोहम्मद अली जौहर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहकर चले गए. 

मौलाना जौहर भारत की आज़ादी के लिए बीमारी की हालत में 1930 में गोल मेज़ कांफ़्रेंस में भाग लेने लंदन पहुंचे. यहां उनका दिया गया भाषण ऐतिहासिक है. यहीं उन्होंने 19 नवम्बर, 1930 को अपने भाषण में कहा था, “मेरे मुल्क को आज़ादी दो या मेरी क़ब्र के लिए मुझे दो ग़ज़ जगह दे दो; क्योंकि यहां मै अपने मुल्क की आज़ादी लेने आया हूं और उसे लिए बिना वापस नहीं जाऊंगा.”

उस वक़्त ब्रिटिश सरकार ने भारत को आज़ादी तो नहीं दी, लेकिन मौलाना जौहर ने एक आज़ाद देश में समाधि जीत ली. इस मुजाहिद-ए-आज़म ने अपनी आख़िरी सांस लन्दन के हाइड पार्क होटल में ली. इनकी मौत की ख़बर ने पूरी दुनिया को सदमे में डाल दिया. भारत में जब ये ख़बर पहुंची तो सम्पूर्ण देश में निस्तब्धता छा गई. जगह-जगह शोक-सभाएं आयोजित की गईं, भाषण दिए गए, उनके कामों का ज़िक्र किया गया और लोगों को देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने के लिए प्रेरित किया गया. इन सभाओं में हिन्दू-मुसलमान दोनों ही शामिल होते थे. यही नहीं, उनके बारे में अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की गई, जिसमें मौलाना का त्याग वर्णित किया गया. इनमें से ‘इंक़लाब’, ‘मदीना’ और ‘ख़िलाफ़त’ ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है.

ईसाई जगत पर भी मौलाना के मौत की ख़बर ने गहरा प्रभाव डाला. अख़बार ‘अलमुकतम’ ने भी लिखा कि, मौलाना जौहर दुनिया के मुस्लिम रहनुमाओं में एक बुलंद रूतबे के मालिक थे.

मौलाना जौहर के जनाज़े की नमाज़ का वक़्त 5 जनवरी, 1931 को शाम 6 बजे ‘पेडगटन टोल हॉल’ में तय किया गया. यहां ख़ास तौर पर उस वक़्त के हिजहाइनेस शाहबली खां, अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत अफ़ीफ़ी पाशा, मिस्र के राजदूत नूरी इसफन्दियारी, इरान के राजदूत शेख़ हाफ़िज़ वहबा, हिजज़ा के राजदूत और गोलमेज़ के तमाम सदस्यों ने इन्हें कांधा दिया. हॉल के बाहर अंग्रेज़ों का हुजूम था और हॉल के अंदर भी तमाम जमाअतों के अंग्रेज़ नुमाइंदे मौजूद थे.   

हर किसी की ख़्वाहिश थी कि मौलाना जौहर को उनके शहर में दफ़न किया जाए. रामपुर, लखनऊ, अजमेर, कलकत्ता, दिल्ली, अलीगढ़ और कई शहरों से लोगों ने तार भेजा कि मौलाना जौहर को उनके शहर दफ़न किया जाए, लेकिन फ़िलिस्तीन के मुफ़्ती-ए-आज़म अमीनुल हुसेनी ने उन्हें जेरूसलेम के बैतुल मुक़द्दस में दफ़न किए जाने की गुज़ारिश की. बताया जाता है कि इसके पीछे उनका मक़सद ये था कि भारत के मुसलमानों को धार्मिक आधार पर फ़िलिस्तीन से जोड़ा जाए. जिस तरह भारत के मुसलमान मक्का और मदीना से मुहब्बत करते हैं, वैसा ही मुहब्बत वो बैतुल मुक़द्दस से भी करें. 

अमीनुल हुसेनी साहब की गुज़ारिश पर मौलाना के भाई शौकत अली राज़ी हो गए. क्योंकि मौलाना जौहर ने खुद ही कहा था कि वो गुलाम देश में दफ़न होना नहीं चाहते…

मौलाना अली जौहर ने पूरी ज़िन्दगी खादी ही पहनी थी. उनका क़फ़न भी खद्दर का ही था. आपका शव 5 दिनों तक लन्दन में रखा गया. फिर ‘नारकन्डा’ जहाज़ से टिबलरी बन्दरगाह से बैतुल मुक़द्दस रवाना किया गया. 21 जनवरी को उनकी लाश ‘पोर्ट सईद’ पहुंची, जहां मिस्र के शहज़ादे ने ‘ग़िलाफ़-ए-काबा’ का एक टुकड़ा ताबूत पर रखने के लिए पेश किया. 23 जनवरी को 1931 को ये ताबूत जेरूसलेम पहुंचा तो यहां की सारी दुकानें बंद हो गईं. ऐसा जन-समूह उमड़ पड़ा कि ताबूत को हरम शरीफ़ तक पहुंचाने में पूरे तीन घंटे लगे. जुमा की नमाज़ के बाद यहां फिर से जनाज़े की नमाज़ पढ़ी गई. कई अहम मशहूर मुस्लिम लीडरों के भाषण के बाद इन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया.       

आज मौलाना जौहर हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी महान आत्मा आज़ाद भारत के कण-कण में मौजूद है. ये अलग बात है कि हमारे पीएम मोदी फ़िलिस्तीन जाकर भी इस महान आत्मा की क़ब्र पर जाना मुनासिब नहीं समझा. जबकि मौलाना जौहर ने कभी कहा था —‘मैं 7 हज़ार मील दूर ज़मीन व समुद्र को पार करके आया हूं क्योंकि जब बात इस्लाम और भारत की होती है तो मैं पागल हो जाता हूं.’ और इसी  ‘पागलपन’ ने उन्हें बीमारी की हालत में भी लन्दन के गोलमेज कांफ्रेंस जाने को मजबूर किया, क्योंकि वो भारत को किसी भी हाल में आज़ाद कराना चाहते थे.

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]