Dr. Sandeep Pandey for BeyondHeadlines
जैसे ही यह प्रतीत होना शुरू हुआ कि समाजवादी पार्टी की सरकार ने 84-कोसी परिक्रमा से निपटने के लिए सराहनीय क़दम उठाये हैं और मुसलमानों की नज़रों में उनका कद कुछ ऊँचा हुआ, वैसे ही मुज़फ्फरनगर में दंगे शुरू हो गए. इन दंगों ने सपा सरकार की छवि पर बहुत बुरा प्रभाव डाला है. दस दिन तक मुज़फ्फ़रनगर में सांप्रदायिक तनाव बना रहा. मुसलमान नेताओं ने 1 सितम्बर को ही मुलायम सिंह से मिल कर वहां अर्धसैनिक बल तैनात करने की मांग की थी.
38 लोगों की मृत्यु हो चुकी है. कई लोग घायल हुए हैं. हज़ारों का विस्थापन हुआ है. संपत्ति का भी बहुत नुक्सान हुआ है. दुर्गा शक्ति नागपाल को तो एक ऐसी छोटी सी घटना के कारण निलंबित कर दिया गया, जिसने कोई साम्प्रदायिक भावनाएं उजागर नहीं की थीं, परन्तु मुज़फ्फरनगर में अभी तक किसी भी आला अधिकारी के खिलाफ कोई क़दम नहीं उठाया गया है. केवल दो एस.एच.ओ. को निलंबित किया गया है. धारा-144 लागू होने के बावजूद इतनी बड़ी महापंचायत करने की अनुमति दी गयी, जिसमें लोग शस्त्र ले कर आये. इस से यह साफ़ हो जाता है कि प्रशासन की मिली-भगत के कारण ही स्थिति इतनी बिगड़ गयी. महापंचायत करने की अनुमति देने का फैसला किस स्तर पर लिया गया? ज़ाहिर है कि यह निर्णय उन दो एस.एच.ओ. का तो नहीं था. इसके लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों की पहचान करके उनके खिलाफ सख्त कार्रवाही की जानी चाहिए.
महापंचायत में बी जे पी के नेताओं ने उत्तेजक भाषण दिए. संघ परिवार ने लोगों को भड़काकर एकत्रित किया. यह संभव नहीं है कि भारतीय किसान यूनियन ने अकेले ही यह सब किया हो. बीकेयू तो अपनी वर्तमान स्थिति में किसानों को उनसे जुड़े बड़े-बड़े मुद्दों पर भी संगठित नहीं कर पाता. तो एक साम्प्रदायिक मुद्दे पर इतने सारे किसान एकट्ठे कैसे हो गए? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भागीदारी के कारण ही यह मुमकिन हो पाया.
प्रश्न यह है कि जब आग में घी डालने वाले संघ परिवार ने नेताओं की पहचान की जा चुकी है तो उनके खिलाफ कोई कारवाही क्यों नहीं हो रही? समाजवादी पार्टी की सरकार को आखिर किस बात का डर है?
पहले भी सपा की सरकार के शासन में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं, लेकिन कोई इतना भयानक दंगा कभी नहीं हुआ, जिसमें हिंसक तत्वों को इस प्रकार खुली छूट मिली हो और राजनेताओं की मिली-भगत पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष हो. क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आगमन के बाद देश में एकाएक साम्प्रदायिक तनाव बढ़ गया है?
यह कहा जा रहा है की 84-कोसी की यात्रा द्वारा मोदी अयोध्या के माहौल का आंकलन करना चाहते थे और उसके अनुभव से यह साफ़ हो गया कि बाबरी मस्जिद के मुद्दे का फ़ायदा अब उस प्रकार नहीं उठाया जा सकता जैसा मस्जिद टूटने के समय पर किया गया था. लेकिन 84-कोसी परिक्रमा ने हिंदुत्वावादी तत्वों को उत्तेजित करना का काम ज़रूर किया. और यह उत्तेजना मुज़फ्फरनगर में बाहर निकल के आई.
अब ध्रुवीकरण पूर्ण हो चूका है. पारंपरिक रूप से अजित सिंह का समर्थन करने वाली जनता अब कम से कम कुछ समय के लिए भाजपा का साथ देगी और शायद अगले चुनाव तक यह स्थिति कायम रहे. मुलायम सिंह ने यह सोचा होगा कि उनके प्रतिद्वंदी, राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक दल, का नुक्सान होगा और भाजपा का समर्थन तो बढ़ेगा, लेकिन इतना भी नहीं की अगले चुनाव में उनके लिए अधिक वोटों का रूप ले. वह तो अभी भी मुसलामानों के सपा के हक़ में संगठित होने के ख्वाब देख रहे हैं. अपने प्रतिद्वंदी को कमज़ोर करके खुद को सशक्त करने की ऐसी चाल परिस्थिति हात से बहार निकल जाने पर उल्टा असर भी डाल सकती है, जैसा की मुज़फ्फरनगर में देखने को मिल रहा है.
यह बड़े दुःख की बात है कि सपा और भाजपा जैसे राजनैतिक दलों ने दंगों की राजनीती को खूब बढ़ावा दिया है. उनके लिए तो यह एक खेल मात्र है परन्तु आम जनता इसकी कीमत मौत से चुका रही है.
हम राजनीति के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सख्त विरोध करते हैं और उम्मीद करते हैं कि प्रदेश की जनता अगले चुनाव में ऐसी घृणित राजनिति करने वाले दलों को मूंह तोड़ जवाब देगी.