Himanshu Kumar for BeyondHeadlines
दीदी कांट्रैक्टर जर्मन पिता और अमरीकी मां की संतान हैं. रोचक यह है कि दोनों ही कलाकार थे और कला को समर्पित थे. दीदी का पालन-पोषण टैक्सास में हुआ. गर्मियां उनकी न्यू मैक्सिको में गुजरती थीं. मैक्सिको दीदी को बेहद पसंद था. पारंपरिक शैली के घरों की तरफ उनका रुझान मैक्सिको में ही विकसित हुआ.
21 वर्ष की उम्र में उनका विवाह (1951) एक गुजराती कांट्रैक्टर से हुआ, जो नासिक के रहने वाले थे. एक सर्वथा विपरीत सामाजिक परिवेश को जीती हुई दीदी ने पति के संयुक्त परिवार को अपनाया. ज्यादातर उनका समय अपने नए वातावरण को देखते, ग्रहण करते और आत्मसात करते ही बीता.
अपने परिवार और बच्चों की पूरी देखभाल करते हुए भी वह अपनी विरासत अपने मन में संजोए रहीं. उन्होंने पेंटिंग सीखी और पति के कार्य में सक्रिय सहयोग दिया. इंटीरियर डेकोरेटर के तौर पर उन्होंने ‘जगनिवास’ और ‘जलमहल’ (उदयपुर) का भी पुनः सौंदर्यीकरण किया।1975 में वह पालमपुर आईं और हिमाचल की सुंदरता को देख मंत्रमुग्ध रह गईं.
वह 1978 में अंद्रेटा में आ गईं. उन्होंने प्रोफेसर जयदयाल के पुराने घर को ही अपना निवास बनाया और वहां 12 वर्षों तक रहीं. कच्चे घरों के प्रति उनका आकर्षण नोराह रिचर्ड की वजह से हुआ. उन्होंने माना कि कंक्रीट के जंगल की जगह पारंपरिक रूप से बने ये घर ज्यादा इको फ्रेंडली हैं.
दीदी गांधीवादी हैं. उनके घर में सारे कपड़े खादी के हैं. उनका रहन-सहन बिलकुल सादा है.
गांधी कहते थे हमारी सारी ज़रूरतें आस पास के पांच गाँव से ही पूरी होनी चाहिये. इसे ही गांधी स्वदेशी कहते थे. कंक्रीट के मकान में लगने वाली सामग्री को दूर से, डीज़ल जला कर, सीमेंट और स्टील बनाने के लिए लोगों को विस्थापित कर के प्रदूषण फैला कर सारे देश में एक जैसे मकान बनाए जा रहे हैं.
मकान की सामग्री दूर से लेकर आने और सारे देश में एक जैसे कांक्रीट के मकान बनाना मुनाफे की अर्थव्यवस्था और उसे समर्थन देने वाली राजनीति का प्रतीक है. अभी आप जो मकान बनाते है उसमे से 80 प्रतिशत पैसा पूंजीपति की जेब में जाता है. लेकिन मिट्टी के मकान में अस्सी प्रतिशत पैसा मजदूर के घर में जाता है.
दीदी कहती हैं कि मकान मेरे लिए मेरा राजनैतिक वक्तव्य है. दीदी के मिट्टी के मकान इसके विरुद्ध ज़मीन पर मिट्टी से लिखा गया एक राजनैतिक वक्तव्य है….
इस समय दीदी का घर रक्कड़, सिद्धबाड़ी (धर्मशाला) में है. दीदी कांट्रैक्टर अब लगभग 85साल की हो चुकी हैं. पिछले बीस सालों से उन्होंने ऐसे ही पारंपरिक घरों को प्रोत्साहित किया है. हालांकि ऐसा पहला घर इस एरिया में सबसे पहले उन्होंने अपना ही बनाया था.
स्पष्ट रहे कि दीदी ने अपने मिट्टी के मकान का नक्शा खुद ही बनाया. उसके बाद अनेकों लोगों ने अपने घर का नक्शा भी दीदी से बनवाया. धीरे-धीरे इनका मकान प्रसिद्ध होने लगा. आज इनके पास अनेकों वास्तुशिल्प विश्वविद्यालय अपने छात्रों को काम सीखने के लिए भेजते हैं. लेकिन मैं आपको बताता चलूं कि दीदी के पास खुद वास्तुशिप की कोई डिग्री नहीं है.
अगर आप उनसे एक बड़ा मकान बनवाने के लिए नक्शा बना कर देने के लिए कहेंगे तो वो आपसे आपके परिवार के सदस्यों के बारे में पूछेंगी और फिर सिर्फ ज़रूरी आकार का नक्शा बना कर देंगी.
खैर, स्थानीय संसाधनों (बांस, स्लेट, मिट्टी) से बने ये घर भूकंपरोधी भी हैं और इनसे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचता. दीदी की सोच पारंपरिक तकनीक से बनाए जाने वाले इन घरों को लोकप्रियता देने की है. इन घरों की लागत भी कम आती है और इनका जीवन भी लंबा होता है.
दीदी अपने प्रोजेक्ट के लिए, उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के साथ स्थानीय कामगारों का भी सहयोग लेती हैं. मकानों में सिर्फ स्थानीय सामान ही इस्तेमाल करती हैं. उन्होंने ऐसे बहुत से घर बनाए हैं, पर हर घर में कुछ अलग और नया वह जरूर रखती हैं. देखने में भले ही ये घर पारंपरिक लगें, पर इनकी तकनीक एकदम आधुनिक है. इस समय जबकि पूरे हिमाचल में कंक्रीट के जंगल उग आए हैं, ऐसे में दीदी का यह प्रयास वरदान सरीखा ही लगता है.
हैरत है कि दूर देशों से आए लोग पर्यावरण प्रदूषण और भूकंप के खतरों से आगाह करने के प्रयास में लगे हैं, पर हम हैं कि कंक्रीट के जंगल खुद खड़े करते जा रहे हैं और हमें शर्म भी नहीं आती.