जानिए पीर मुहम्मद मुनिस को, जिन्हें इतिहास ने भूला दिया है…

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Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

देश में ऐसे अनेक हीरो हैं, जिसे हमने भूला दिया है. लेकिन नई सरकार के सत्ता में आने के बाद तस्वीर कुछ बदल रही है. पुराने नायकों को याद किया जा रहा है. उन्हें पुरस्कृत किया जा रहा है. उनकी झूठी ब्रांडिंग की जा रही है. लेकिन ये भी क्या अजीब बात है कि जो देश के असल नायक थे, उन्हें आज भी कोई याद करने को तैयार नहीं है.

मुझे आज उस शख्स की याद आ रही है, जिसने अपना सारा जीवन देश की आज़ादी हासिल करने में लगा दी. जिसके जीवन का असल मक़सद देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम रखना था. जिसने वतन के खातिर अपना सबकुछ त्याग दिया. उस सच्चे देश-भक्त का नाम है –पीर मुहम्मद मुनिस….

IMG_20141203_104251पीर मुहम्मद मुनिस को दुनिया ‘क़लम के सत्याग्रही’ के नाम जानती है. चम्पारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि तैयार करने व गांधी जी को चम्पारण लाने में पीर मुहम्मद मुनिस की भूमिका अविस्मरणीय रही है. इन्होंने अपना पूरा जीवन सत्याग्रह में लगा दिया. देश की आज़ादी के लिए पूरा जीवन अभाव में जीया और अभाव में ही 24 दिसम्बर, 1949 को दिवंगत हो गए. हालांकि इनके आखिरी वारिस बची इनकी पोती हाजरा खातुन के शौहर को 24 दिसम्बर की तारीख पर आपत्ति है. उनका कहना है कि मौत की तारीख़ 24 दिसम्बर नहीं, बल्कि 14 अगस्त है.

मो. मुस्तफा उर्फ भोला फूटबॉलर बताते हैं कि वो दिन हमारे बचपन के दिन थे. हमें याद है कि वो दिन 14 अगस्त था और दादा को 15 अगस्त के रेडियो प्रोग्राम के लिए जाना था. ऑल इंडिया रेडियो वाले पटना से उन्हें लेने आने वाले थे. वो उन्हीं के इंतज़ार में बैठे थे. अचानक हार्ट अटैक की वज़ह से इस दुनिया को हमेशा को लिए छोड़कर चले गए. यह कहानी सिर्फ मुझे ही याद नहीं, बल्कि मेरे अब्बू ने भी कई बार सुनाया है और मेरी बीवी हाज़िरा भी यही बताती हैं. पता नहीं लोगों ने 24 दिसम्बर कहां से ला दिया.

वो बताते हैं कि पीर मुहम्मद मुनिस के आखिरी वारिसों में सिर्फ दो पोता-पोती थे. पोता मो. क़ासिम और पोती हाज़रा खातून… पोता मो. क़ासिम दो साल पहले अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं. वो सरकार पर रोष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सरकार ने इस सच्चे देश-भक्त को हमेशा के लिए भूला दिया है. लोग बताते हैं कि उनके नाम पर मेरे घर के सामने वाले रोड का नामकरण किया गया था, लेकिन सरकार ने आज तक कोई बोर्ड नहीं लगाया. जिससे यह अस्पताल रोड के नाम से ही जाना जाता है, और अब कुछ लोग इसे जायसवाल रोड का नाम देने लगे हैं. (इस बात की पुष्टि लेखक से स्व. डॉ. शोभाकांत झा ने भी किया था, उनके मुताबिक बेतिया के हॉस्पीटल रोड का नाम पीर मुहम्मद मुनिस रोड है.)

वहीं जेपी आंदोलनकारी व समाजसेवी ठाकूर प्रसाद त्यागी की मांग है कि केन्द्र सरकार बेतिया रेलवे स्टेशन का नाम पीर मुहम्मद मुनिस के नाम पर रखे. ताकि देश की युवा पीढ़ी चम्पारण के गौरवशाली इतिहास और आज़ादी के दीवानों को जान सके. वो बताते हैं कि वो जल्द ही इसके लिए आन्दोलन शुरू करेंगे.

IMG_20141203_115715हैरान कर देने वाली बात यह है कि आज पूरा चम्पारण क़लम के इस सत्याग्रही को पूरी तरह से भूल चुकी है. युवा पीढ़ी की बात तो दूर शहर के बुजुर्गों को भी इनका नाम कुछ खास याद नहीं है. हमने इनके इतिहास की तलाश में पूरे चम्पारण की खाक छानी. बड़ी मुश्किल से शहर के विपिन स्कूल के विजिटर बुक में पीर मुहम्मद मुनिस द्वारा लिखित उनके अपने हैंडराइटिंग में 1926 का वो पत्र मिला, जिसमें उन्होंने इस स्कूल को म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के तहत करने की वकालत की थी. (वैसे हमारा शोध-कार्य अभी भी जारी है.)

पीर मुहम्मद मुनिस का जन्म 1882 में बेतिया शहर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. आपके पिता का नाम फतिंगन मियां था. पीर मुहम्मद मुनिस बचपन से ही इंक़लाब पसंद इंसान थे. अंग्रेज़ी राज को इनकी क़लम पसंद नहीं आई और इन्हें आंतकी पत्रकार घोषित किया. ब्रिटिश दस्तावेज़ों के मुताबिक –“ पीर मुहम्मद मूनिस अपने संदेहास्पद साहित्य के ज़रिये चंपारण जैसे बिहार के पीड़ित क्षेत्र से देश दुनिया को अवगत कराने वाला और मिस्टर गांधी को चंपारण आने के लिए प्रेरित करने वाला ख़तरनाक और बदमाश पत्रकार था”

मूनिस एक शिक्षक थे, मगर अंग्रेज उन्हें गुंडा बताकर पुलिस के चंगुल में फंसाने की असफल कोशिशें करते रहे. मूनिस का जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘मेरे असहयोग आंदोलन के साथी’ में विस्तार से किया है. वे हिन्दी भाषा के एक अच्छे लेखक और साहित्य प्रेमी थे. बल्कि सच पूछे तो बिहार में अभियानी हिन्दी पत्रकारिता के जनक थे. लेकिन यह विडम्बना ही है कि पत्रकारिता की किताबों में उनका ज़िक्र शायद ही कहीं मिले. मुस्लिम होते हुए भी वे हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जी-जान से लगे रहे. हिन्दू मुस्लिम एकता के हिमायती पीर मुहम्म्द मूनिस ने अपने वक्त के दंगों की रिपोर्टिंग करते वक्त पंडित और मौलवियों की करतूतों को खूब उजागर किया था.

हिन्दी के विकास में उनका योगदान उल्लेखनीय है. वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अध्यक्ष बनाए गए. आपके लेख उस दौर पर प्रसिद्ध ‘नया ज़माना’, ‘नव जीवन’, ‘स्वदेश’, ‘पाटलीपुत्र’ जैसे दर्जनों पर्चो व अखबारों में छपते रहे. कानपूर से निकलने वाले ‘प्रताप’ अख़बार के संवाददाता थे. जिसके संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे. इनके लेखों के लिए प्रताप अखबार को भी प्रताड़िता किया जा रहा था. पीर मुहम्मद मूनिस ने भी चम्पारण में अंग्रेज़ों के ज़रिए निलहों पर होने वाले अत्याचार को सामने लाने के लिए जेल की सजा भुगतनी पड़ी. अपनी नौकरी से बर्खास्त हुए और उनकी संपत्ति तक ज़ब्त हो गई.

पीर मुहम्मद मूनिस ने अंग्रेज़ों की हक़ीक़त को बयान करते हुए अपनी पुस्तक ‘चम्पारण की प्रजा पर अत्याचार’ लिखी थी, जिसे अंग्रेज़ों ने ज़ब्त कर लिया. वो पुस्तक आज तक नहीं मिली.

चुंकि पीर मुहम्मद मूनिस भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे और उन्हें अंग्रेज़ो से सख्त नफ़रत थी, इसलिए उन्होंने अपने लेखों व बातों के ज़रिए 1905 से 1911 तक जितनी बातों को अवाम के सामने रखा, वो पूरे हिन्दुस्तान में काफी मक़बूल हुए.

1907 में जब चम्पारण के चांद बरवां साठी के रहने वाले जवां-मर्द शैख गुलाब ने अंग्रेज़ निलहों के खिलाफ ‘खुला ऐलान-ए-जंग’ का ऐलान कर दिया. तो इस समय इस जंग की तमाम खुफिया मीटिंग्स बेतिया में पीर मुहम्मद मूनिस के घर ही होते थे.

गांधी जी जब निलहे अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग करने के लिए चम्पारण आएं तो यह मर्दे-मुजाहिद यानी पीर मुहम्मद मूनिस गांधी जी के साथ साया की तरह रहें. गांधी जी के लिए रोटियां पकाईं. खिलाया और साथ-साथ लड़ाई में एक दिलेर खादिम की हैसियत से काम करते रहे. और  पूरी ज़िन्दगी ‘अंग्रेज़ भगाओ और भारत को आज़ाद कराओ’ के मिशन पर लगे रहें. इस तरह से पीर मुहम्मद मूनिस एक ऐसे मुजाहिद-ए-आज़ादी थे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी जंग-ए-आज़ादी में ही लगा दी. गांधी जी भी इन्हें दिलों-जान से मानते थे. गांधी जी जब पहली बार 23 अप्रैल 1917 को बेतिया पहुंचे तो हज़ारीमल धर्मशाला में थोड़ा रूक कर सीधे वो पीर मुहम्मद मुनिस के घर उनकी मां से मिलने पैदल चल पड़े. वहां मुनिस के हज़ारों मित्रों ने गांधी का अभिनन्दन किया.

1921 में चम्पारण में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही इससे पूरी तरह से जुड़ गए. और मरते दम तक कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा. 1937 में कांग्रेस के टिकट पर चम्पारण डिस्ट्रिक बोर्ड के सदस्य चुने गए और बेतिया लोकल बोर्ड के चेयरमैन बने. पीर मुहम्मद मूनिस  को किसी पद का लालच कभी नहीं रहा. इसीलिए 1939 में चेयरमैनशिप से इस्तीफा दे दिया. और अंग्रेज़ों के खिलाफ सत्याग्रह में पूरी तरह से लग गए. इसके लिए इन्हें जेल भी जाना पड़ा. इससे पहले नमक आन्दोलन के समय भी 1930 में पटना कैम्प जेल में तीन महीने की सज़ा काट चुके थे. वो न सिर्फ जेल गए बल्कि अंग्रेज़ों ने उनकी पूरी जायदाद ज़ब्त कर ली. पूरा घर बर्बाद हो गया, मगर कभी उन्होंने इसकी फिक्र न की.

हालांकि आज़ादी मिलने के बाद देश में कांग्रेस की ही सरकार बनी. देश-रत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने, जिनके साथ ही रहकर पीर मुहम्मद मूनिस ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकतर हिस्सा गुज़ारा था. मगर किसी ने भी इनके ग़रीबी और परेशानी की तरफ ध्यान नहीं दिया और न ही अंग्रेज़ों द्वारा इनकी ज़ब्त की गई सम्पत्ति को किसी ने वापस दिलाया.

यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि जिसने इस देश के साथ गद्दारी की. जिन्होंने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर एक देशभक्त को फांसी के तख्ते पर लटकवाया दिया, वो आज भारत रत्न हासिल कर रहे हैं. और जिन्होंने इस देश के लिए अपना सबकुछ निछावर कर दिया, उन्हें कोई जानता तक नहीं…. इसके लिए ज़िम्मेदार हम भी हैं. पीर मुहम्मद मूनिस ने कभी कहा था -‘वही  भाषा जीवित और जागृत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके.’ लेकिन मेरा मानना है कि इतिहास में वही बन्दा जावित रह सकता है, जिसे उसकी क़ौम याद रखे. उसके युवा पीढ़ी याद रखे…. लेकिन पीर मुहम्मद मुनिस की फिक्र न सरकार को है, न समाज को है और न हीं देश युवा पीढ़ी को…

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