Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
शामली से एक वीडियो आया. एक मानसिक विक्षिप्त को कुछ धार्मिक विक्षिप्त सरेआम पीट रहे हैं. भीड़ तमाशा देख रही है. उन्माद के नारों के बीच पिटने वाली की आह निकलती है और अनसुनी ख़ामोश हो जाती है.
हज़ारों लोग, लेकिन कोई इंसान नहीं जो धार्मिक विक्षिप्तों को रोक मानसिक विक्षिप्त का बचाव कर सके. वैसे भी, लोग जब भीड़ बनते हैं तो सबसे पहले इंसानियत का ही क़त्ल करते हैं.
सड़क पर जो हुआ वो चिंताजनक है. लेकिन सोशल मीडिया पर जो हुआ वो भयावह है. घटना के वीडियो को शेयर किया जाने लगा. लेकिन सिर्फ़ मुसलमानों के अकाउंटों पर ही. क्योंकि पिटने वाला मुसलमान था और मारने वाले हिंदू.
भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच की दीवार और ऊंची नज़र आई. फ़ासला और लंबा. पहले ना ये दीवार इतनी ऊँची थी और ना ये फ़ासला इतना लंबा. अब ऐसा क्यों है इसका जवाब इतना मुश्किल नहीं हैं.
धार्मिक हिेंसा अब राजनीतिक रणनीति है. सत्ता पाने का सरल रास्ता. प्रशासनिक एजेंसियों का इकतरफ़ा रवैया भी कोई छुपी बात नहीं हैं.
लेकिन सवाल न्यायपालिका और मानवाधिकार संगठनों और आयोगों से किया ही जाना चाहिए.
फ़िल्मों के दृश्यों तक का स्वतः संज्ञान लेने वाली न्यायपालिका क्यों ख़ामोश रही. इस वीडियो का संज्ञान ले जाँच के आदेश क्यों नहीं दिए गए?
और मानवाधिकार आयोग और संगठन. सोशल मीडिया के इस दौर में ऐसा नामुमकिन है कि हज़ारों लोगों द्वारा शेयर किया गया यह वीडियो इन संगठनों और आयगों की नज़र से ना गुज़रा हो.
तो फिर वो भी ख़ामोश क्यों रहे.
क्या ऐसा मुसलमानों को दोयम दर्ज़े का नागरिक साबित करने की रणनीति के तहत तो नहीं किया जा रहा है?
और अंत में, मुसलिम संगठनों ने भी सिर्फ़ सोशल मीडिया पर वीडियो वॉयरल करने के सिवा क्या किया?
क्यों नहीं वो स्वयं इसे न्यायपालिका और मानवाधिकार आयोग तक लेकर गए.
ये किसी एक ख़ास धार्मिक पहचान वाले मानसिक विक्षिप्त से मारपीट का मामला भर नहीं है.
ये एक पूरी क़ौम को डराने की बड़ी रणनीति का हिस्सा है जिसके ख़िलाफ़ आवाज़ सोशल मीडिया से निकलकर अदालतों-आयोगों तक में उठनी ही चाहिए.