Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines
मुसलमान — जिनकी 2011 की जनगणना के आंकड़ों में साक्षरता की दर सिर्फ़ 68.5 है. जो कि भारत के बाक़ी समुदायों के मुक़ाबले सबसे कम है.
मुसलमान — जिसके 6-14 साल की उम्र वाले 25 फ़ीसदी बच्चों ने या तो कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा या फिर वो शुरुआत में ही पढ़ाई छोड़ गए.
मुसलमान — जिनके कुल आबादी का सिर्फ़ 2.75 फ़ीसद ही लोग ग्रेजुएट हों.
मुसलमान — जिनके बच्चे देश के नामी कॉलेजों में सिर्फ़ 2 फ़ीसद से भी कम ही पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दाख़िला ले पाते हैं.
मुसलमान — जो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ देश की कुल आबादी में 13.4 फ़ीसद हैं, मगर प्रशासनिक सेवाओं में सिर्फ़ 3 फ़ीसद, विदेश सेवा में 1.8 फ़ीसद और पुलिस सेवा में 4 फ़ीसद ही अधिकारी हैं.
अब आईए आपको ले चलते हैं दिल्ली के पॉश इलाक़ा लोधी रोड… यहां की ऊंची-ऊंची इमारतों में एक आलीशान इमारत ‘इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर’ (IICC) की भी है. (इसे कल्चरल सेन्टर से बेहतर इलीट मुसलमानों का क्लब कहना ज़्यादा बेहतर होगा.)
यहां पिछला एक महीना बेहद ही अहम था. दिल्ली में मौसम बेहद सर्द होने के बावजूद यहां की दीवारों से राजनीतिक तवे पर सिक रही रोटियों की गर्माहट पूरे देश के मुसलमान मुहल्लों में छाई हुई थी. आख़िर इलीट मुसलमानों के इस क्लब का चुनाव जो था.
इस चुनाव में विभिन्न पदों पर क़रीब 38 उम्मीदवार अपनी क़िस्मत की आज़माईश में लगे हुए थे. पैसा पानी की तरह बहता रहा और इस क्लब के कथित रहनुमा सत्ता पर क़ब्ज़े की लड़ाई के समीकरण बैठाते रहे. इसमें धन, बाहुबल से लेकर रसूख और जोड़-तोड़ का जमकर इस्तेमाल किया जाता रहा. सत्ता की हनक और राजनीति के हर हथकंडे का जमकर प्रयोग हुआ…
बिरयानी, चिकन व मटन की गंध… ऐसा लगा कि IICC से निकल कर लूटियन ज़ोन समेत दिल्ली के तमाम पॉश व मुस्लिम इलाक़ों में फैल गई हो. जम कर दावतें हुई. गोया किसी ‘क्लब’ का चुनाव न हो, बल्कि दिल्ली की चांदनी चौक सीट पर कांग्रेस व बीजेपी की बीच चुनाव जीतने की नुराकुश्ती हो. (हालांकि इस क्लब के सबसे अहम पद पर खड़े उम्मीदवारों में हमेशा ये मुक़ाबला होता रहा है कि कौन भाजपा के कितना क़रीब है.)
इतने संसाधन झोंक दिए गए कि लगा दिल्ली विधानसभा का कोई मिनी इलेक्शन हो रहा है. अहम नेताओं के साथ कई भूतपूर्व गवर्नर, पूर्व जस्टिस, आईएएस, आईपीएस व आईएफ़एस अफ़सरान इस इलेक्शन के प्रचार-प्रसार व वोट देने और मांगने वालों में शामिल रहें.

महज़ 3214 इलीट सदस्यों के इस चुनाव को मुसलमानों के बीच ऐसा पेश किया गया कि तमाम आम मुसलमानों के इज़्ज़त का सवाल हो. बार-बार इस सेंटर को विश्व स्तर पर एक पहचान दिलाकर मुसलमानों की इज़्ज़त बनाने की बात की जाती रही. इस क्लब के रहनुमा मुसलमानों को लेकर कितना बेदार हैं, इसकी कहानी यहां की लाइब्रेरी ही बख़ूबी बयान कर देती है. 3214 इलीट सदस्यों वाली इस क्लब की लाइब्रेरी में सिर्फ़ 2775 किताबें हैं.
इलीट मुसलमानों की इस चुनावी सियासत का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले चुनाव में यहां के चुनाव का मामला अदालत तक पहुंच गया था. वो तो भला हो इस देश की अदालत का, जिसने खुद को इससे दूर रखना ही मुनासिब समझा.
यहां आपको बता दें कि इलीट मुसलमानों के इस चुनाव में सिर्फ़ 2041 सदस्यों ने ही वोट डाला.
हद तो यह है कि ये इलीट व सरकारी मुसलमान पूरे चुनाव में मुसलमानों के कल्याण व सेवा करने की बात करते रहे. लेकिन सवाल यह उठता है कि जब ये सभी लोग नौकरशाह थे, तब मुसलमानों की कोई सेवा क्यों नहीं की और अब वो इस इस्लामिक सेन्टर की आड़ में मुसलमानों की सेवा क्यों करना चाहते हैं? जब ये सारे लोग राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़े हुए हैं तो ग़रीब व आम लोगों के मुद्दे पर इनकी ज़बान को लकवा क्यों मार जाता है? ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि वक़्त के इसी दौर में जब मुसलमान गाय के नाम सड़कों पर बेमौत मर रहे हैं. तब ये सारे इलीट मुसलमान कहां होते हैं?
ये सारा वाक़्या कई जलते हुए सवाल खड़े करता है. मसलन मुसलमानों के रहनुमा इस्लाम के नाम पर किसकी रहनुमाई कर रहे हैं? करोड़ों का यह बजट किसके पैसों से फूंका जा रहा है? निजी जीत-हार का बोझ समाज के कंधों पर कब तक डाला जाएगा? और सवाल यह भी है कि मुसलमानों की चीखें आख़िर बिरयानी व कोरमा के स्वाद और कहकहों के शोर में कब तक दफ़न होती रहेगी?
सोचने की बात यह भी है कि जो क़ौम इतनी बदहाल है, उस क़ौम के एक छोटे से चुनाव में जिसका समाज में कोई योगदान नहीं है, करोड़ों रूपये खर्च करती है तो फिर वही क़ौम अपना रोना किस आधार पर रोती है?
अफ़सोस की बात तो यह है कि सिर्फ़ इस ‘क्लब’ का चुनाव ही नहीं, बल्कि छोटी-छोटी मस्जिदों, मदरसों और तंज़ीमों में भी मनी, मसल और पावर के बुनियाद पर चुनाव होते हैं. यहां तक कि गुंडे बुलाए जाते हैं. और ये गुंडे क़ौम के रहनुमाओं व मौलानाओं की निगरानी में बुलाए जाते हैं. ऐसे में क़ौम की बदहाली का असल ज़िम्मेदार कौन है?
हमें इन तमाम सवालों के जवाब अब ढ़ूंढ़ने ही होंगे. साथ ही यह भी सोचना पड़ेगा कि IICC जैसी संस्थाओं से आम गरीब मुसलमानों का क्या फ़ायदा हो रहा है? और अगर कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है तो फिर हम अपने नाम पर यह सियासत क्यों होने दे रहे हैं? इन सारे सवालों के साथ-साथ सिराजुद्दीन क़ुरैशी साहब को चौथी बार जीत के लिए मुबारकबाद…
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