Latest News

बर्मा को मिलिट्री मदद व हथियार देना बंद करे भारत…

Ameeque Jamei for BeyondHeadlines

बर्मा में हो रहे रोहिंग्या मुसलमानों पर ज़ुल्म में सैकड़ों मुसलमान बीते जून 2, 2012 से जारी हिंसा में मारे गए और हज़ारों बेघर हुए. माना जाता है कि रोहिंग्या मुस्लिम्स दुनिया की पहली प्रजाति हैं जिनका दुनिया में आज कोई अपना वतन नहीं. फिजी, मारीशस, जावा, सुमात्रा और बर्मा को अंग्रेज़ ग़ुलाम भारत के मज़दूरों को ले गए थे. यह लोग वहां कामगार बनके रहे और वहीं रच बस गए. उपरोक्त देशों में अनेकों प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बने, बर्मा भारत के आस पास ही आज़ाद हुआ, लेकिन आगे जा कर मिलिट्री जुंटा ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया और जम्हूरियत का गला फिर एक बार घोंट दिया गया.

दुनिया में जम्हूरियत की हवा ने वहां के शहरियों को जन्म के आधार पर नागरिकता की बुनियाद डाली, लेकिन 1982 में बर्मा में तानाशाह सरकार ने फासिस्ट नस्ली आधार पर नागरिकता देने के रास्ता चुना और ग़ुलाम भारत से बर्मा गए रोहिंग्या मज़दूर जिसमें अधिकतर मुसलमान थे, उनकी नागरिकता रद्द कर दी गयी. और उन्हें द्वितीय दर्जे का शहरी बना दिया गया.

स्पष्ट रहे कि खुद बर्मा में जम्हूरियत के समर्थक नेताओं की आवाज़ को कुचल डाला गया था. खुद बर्मा की लीडर ‘अंग सुंग सु की’ को अपने ही देश मे दशकों से जेल मे डाल दिया गया था. बर्मा की जुंटा हुकूमत ने पहले रोहिंग्या को ‘स्टेटलेस’ बना दिया. यह दुनिया के पहले लोग हैं, जिनका कोई देश नहीं है. और इसके बाद बर्मा के राष्ट्र-अध्यक्ष  Thein Sein’s  ने यूनाईटेड नेशन को गुहार लगाई कि वो इन रोहिंग्या को किसी तीसरे देश मे बसाये.

इस याचिका को कई बार यूएन ने ख़ारिज कर दिया. हिंसा की शुरुआत मई 28, 2012 को एक बुद्धिस्ट लड़की के साथ तीन संदिग्ध रोहिंग्या मुस्लिम नौजवानों के रेप के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि यह राज्य में रह रहे बुद्धिस्ट और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच क़त्लेआम का एक मामला बन गया. इसके बदले में जून 3 को ‘तौंगोप’ में एक बड़े वर्ग ने एक बस में 10 मुसलमानों का क़त्ल कर दिया.

एचआरडब्लू की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस ने अब तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं की है. इसका बदला लेने की फ़िराक में मॉंगदाव टाऊन में जुमे की नमाज़ में 8 हज़ार लोग दंगे से प्रभावित हुए. फिर यह आग सितवे खित्ते के पूरे इलाके मे फ़ैल गयी. और दोनों वर्गो के बीच चले खुनी संघर्ष में हजारो जान गयीं, और तकरीबन 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित हुआ.

यह कहना ग़लत ना होगा कि जुंटा सरकार ने इसे खूब हवा दी और इसी घटना के बहाने रोहिंग्या को देश से बाहर निकालने की मुहिम को हवा मिली. 1947 से यह रोहिंग्या मजदूर वर्ग जो बर्मा की संस्कृत, बोल चाल, रीती रिवाज में रच बस गया था, मूलतः तब के संयुक्त भारत के (अब बंग्लादेश में) मूल निवासी थे. इस सन्दर्भ मे  2,50,000 रोहिंग्या को बंग्लादेश सरकार ने बसाने  के बाद उनका फिर बंग्लादेश में जाना निषेध कर दिया और उसने अपनी समंदर से लगी सरहदों पर कड़े पहरे लगा दिए.

अलजज़ीरा से प्राप्त रिपोर्ट से पता चलता है कि जब उन्हें जबरन रोहिंग्या से निकला गया और उबलते समंदर में बच्चों-बूढों को धकेल दिया गया. उन्हें जब बंग्लादेश ने अपनाने से मना किया तब वही भारत की सरकार ने हजारो रोहिंग्या अल्पसंख्यकों को शरण दी है. बर्मा में लोकतंत्र की मज़बूत आवाज़ “अंग संग सु की” ने जुलाई में दिए बर्मा की संसद में पहले भाषण में इस विषय पर चिंता ज़ाहिर की और सभी बर्मीज़ को एक समान अधिकार मिले, इस विषय की वकालत की है. यह झगड़ा पूरे बर्मा में बुद्धिस्ट और मुसलमानों के बीच का बिलकुल नहीं है, जैसा कि भारत में सांप्रदायिक ताक़तों ने हवा देने की कोशिश की है. बर्मा की 73 मिलियन आबादी में  7 मिलियन मुस्लिम अल्पसंख्यक रहते हैं, लेकिन यह मामला सिर्फ अराकीन राज्य से सम्बंधित है.

इस समस्या के हल के लिए विश्व समुदाय खासकर भारत को चाहिए कि वो जुंटा तानाशाह की सरकार को रोहिंग्या को नागरिकता देने पर विचार और 1982 का नागरिक कानून में संशोधन (जहां नागरिकता नस्ल की बुनियाद पर आधारित है ना कि जन्म पर) और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहे, क्योंकि दशकों से रह रहे रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का देश और भविष्य  बर्मा ही है. क्योंकि वो 100 साल से उपर से बर्मा के निवासी हैं और उनका जीवन-यापन और संस्कृति एक आम बर्मीज़ मूल निवासी सा ही है.

इधर भारत के असम में इसी तर्ज़ की घटना घटी. मुस्लिम सांप्रदायिक संघटनों ने इसे दुनिया में मुसलमान को संगठित तरीके से क़त्ल करने का मामला बताया और पूरे भारत उपमहाद्वीप में उपद्रव मचाया गया और सोशल साईट्स पर कुछ अतिवादी ताक़तों ने फोटोशॉप में तस्वीरें एडिट करके यह दिखाने की कोशिश की, जिसमें बर्मी बुद्धिस्ट को मुसलमानों का मास-मर्डर करते दिखाया गया और कई मस्जिदों को गिराते हुए दिखाकर मुसलमानों के जज़्बात को भड़काया गया.

एक जानकारी के मुताबिक बर्मीस यूथ फेडरेशन के हजारो बुद्धिस्ट नेता, सांसद और कई मज़हबी रहनुमा भारत के दिल्ली में रहते हैं, जिन्हें वहां से निकाल दिया गया. क्योंकि वो लोकतंत्र के समर्थक और तानाशाह ‘थान श्वे’ के विरोधी थे. बर्मा में लोकतंत्र के समर्थन में दिल्ली सीपीआई के यूथ ऑफिस में ही असाईलम में रह रहे नेताओं का भी दफ्तर है. इसलिए यह लड़ाई बुद्धिस्ट-मुसलमानों की बिलकुल नहीं, जो लोग तस्वीरों को देख भड़ककर मुम्बई के आज़ाद मैदान में दंगे किये, वो पाकिस्तान में बैठे वो अतिवादी जो भारत के युवाओं को भड़काना चाहते थे, किसी हद तक कामयाब हुए. लेकिन भारतीय युवाओं ने इस साज़िश को बहुत जल्दी भांप लिया और देश की सभी बड़ी सेक्यूलर पार्टियों, सिविल सोसायटीज़ ने दिल्ली स्थित बर्मीस दूतावास को घेरा और बर्मा में हो रहे क़त्लेआम को जल्द रोकथाम करने का जवाब माँगा. यहाँ एक बात अहम है कि इसके बाद भारतीय विदेश-मंत्रालय के हरकत में आने के बाद रंगून में स्थित सभी मुस्लिम संगठनों के साथ बर्मा सरकार की बैठक हुयी जिसमें मुसलमानों को अराकीन राज्य में शांति के लिए उठाये गए क़दमों में शामिल किया गया.

लेकिन यह आज साफ़ है कि आज बर्मा की तरक्की में भारत सरकार का बहुत हाथ है, जिसमें उनकी मिलिट्री को ट्रेंड करना, बर्मा में सड़क और दूसरे विकास कार्यों के लिए मनमोहन सरकार ने अरबो डॉलर की मदद दी है. अगर यह सरकार दबाव बनाये तो दुबारा रोहिंग्या मुसलमानों को उन्हीं के देश में बसाया जा सकता है और 1982 के नागरिक अधिकार में परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है. यही एक रास्ता है.

वैसे भी अपनी ज़मीन, खेत और अधिकार की लड़ाई के लिए, लोकतंत्र के लिए अपनी ज़मीन पर रहकर ही लड़ना होगा. अगर भारत में अल्पसंख्यकों के साथ कोई हादसा जैसे ओडिसा में ईसाई या गुजरात में मुसलमान के साथ कुछ होता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि ईसाई इसका हल ढूंढ़ने वो रोम चले जाएं या मुसलमान पाकिस्तान…

खैर, हमें भारत की सरकार को लोकतान्त्रिक तरीके से बताना होगा कि  वो बर्मा के तानाशाह ‘थान श्वे’ को मिलिट्री मदद और हथियार देना बंद करे. इसके साथ ही यह बात साफ़ है कि बर्मा में जल्द ही आज़ाद हुई ‘अंग सु की’ को और बढ़ावा देना ही आने वाले बर्मा का भविष्य होगा, जिसमें लोग खुली हवा में एक साथ साँस ले पाएंगे…

(लेखक अखिल भारतीय नौजवान सभा के सदस्य हैं)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]