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मजबूर मोदी से बेकार की उम्मीदें…

Omair Anas for BeyondHeadlines

भारतीय राजनीति के कुछ प्रमुख शब्द ऐसे हैं जो पूरी राजनीति को अब तक परिभाषित करते आये हैं, इनमें सबसे ज्यादा प्रमुख शब्द है जात बिरादरी का… तक़रीबन हर पार्टी के समीकरण इसी जातीय गणित के इर्द गिर्द बुने जाते हैं. मंडल आयोग ने इस समीकरण को बाकायदा कानूनी हैसियत ही दे डाली. अब वोटर सबसे पहले या तो अनुसूचित जाती जनजाति का है या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का है या फिर सामान्य वर्ग का. फिर जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का कानून हर पार्टी में देखने को मिलता है.

दूसरा बड़ा प्रमुख शब्द हिन्दू-मुस्लिम है, जो भारतीय राजनीती को बहुत गहराई तक प्रभावित करता है. शिक्षा, विकास, स्वास्थ्य क्षेत्रों में पिछड़े और कृषि प्रधान देश में इन दोनों के अलावा बाकी तमाम समीकरण या तो परदे पीछे रखे जाते हैं.

भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी पार्टी के तौर पर उभरी जिसकी बुनियाद में सर्वणों के वर्चस्व को एक धार्मिक और वैचारिक मान्यता प्राप्त थी. पार्टी के नीति निर्माता से लेकर तमाम बड़े फैसले लेने में पार्टी के अन्दर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को कभी भी सहर्ष स्वीकार नहीं किया गया.

रही बात मुसलमानों की तो बीजेपी का उभार ही मुस्लिम विरोध की कोख से हुआ है. हज़ारों पन्नों मे फैला मुस्लिम दुश्मनी पर आधारित वैचारिक साहित्य पार्टी के लिए एक नई पहचान दिलाने में रोड़ा बना हुआ है. “गर्व से कहों हम हिन्दू हैं”, “मुसलमानों के दो ही स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान” और “राम लला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे” के नारों ने हिन्दू वोट बैंक को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने में कामयाब हुआ है. भाजपा के कश्मीर और पाकिस्तान नीति कुछ और नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम दुश्मनी का एक विस्तार मात्र है, जिसे “दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे” जैसे नारों ने अतिहिंसक बनाने का प्रयत्न किया गया ताकि उसका फायदा ज्यादा से ज्यादा राजनीती में हिन्दू वोटो के ध्रुवीकरण करके उठाया जा सके.

इस पूरे तजुर्बे ने भाजपा को बैसाखी वाली सरकारें दिलाई और गटबंधन वाला विपक्ष दिलाया. लेकिन उसे कांग्रेस की तरह अकेले दम पर बहुमत कभी हासिल नहीं हो सका.

बीते दिनों में भारतीय जनता पार्टी में इस बात पर सहमती उभर चुकी है कि भाजपा की सर्वणों वाली पार्टी की पहचान और भाजपा में ब्राह्मणों और बड़ी जातों के चेहरों का वर्चस्व पार्टी को दलितों और पिछड़े वर्गों तक ले जाने में रूकावट बन रहा है. भारतीय जनता पार्टी एक उच्च जातीय, नगर के संपन्न लोगों की पार्टी की छवि से निकल कर कांग्रेस जैसी छवि बनाने में असफल रही है.

वहीं बाबरी विध्वंस और गुजरात दंगों ने भारतीय जनता पार्टी को देश के मुस्लिम वोटरों से हमेशा के लिए दूर कर दिया था. दलितों, पिछड़ों और मुस्लिम मतदाताओं से दूर रहकर भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने में विफल हो चुकी है, लेकिन उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात ये है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गटबंधन भी भाजपा के पैरों में बड़ी बन चूका था. उसे अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए उसे एक नए फार्मूले की ज़रुरत थी और नरेंद्र मोदी उसी नए फार्मूले का एक अत्यधिक प्रचारित चेहरा हो चुके हैं.

नरेंद्र मोदी बीजेपी के डूबते जहाज़ को बचाने के लिए पहले खुद को पिछड़े वर्ग का व्यक्ति बता कर वोट बटोरना चाहते हैं, वहीं मुस्लिम दुश्मनी का प्रतीक बन चुके नरेंद्र मोदी का एक उदार चेहरा सामने लाने के लिए एक नई भाषा भी गढ़ी गई है. मोदी जैसा व्यक्ति पूरी पार्टी को लगातार विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. मोदी लगातार सांप्रदायिकता, कश्मीर, पाकिस्तान, बाबरी मस्जिद, सामान सहिंता जैसे विवादित मुद्दों से खुद को दूर रखने में कामयाब हुए हैं, वो भी गठबंधन के किसी सहयोगी के दबाव के बगैर…

जिन मुद्दों पर नितीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया था, नरेंद्र मोदी उन मुद्दों पर नितीश कुमार के बगैर ही अमल कर रहे हैं. यानी कि भाजपा अपने दम पर भी सेक्युलर पार्टी रह सकती है, ये साबित करने की क़वायद पूरी हो गई है.

एक ऐसे समय में जब सामाजिक न्याय के मंडल फार्मूला ने दलितों और पिछड़ों के एक बड़े तबके को उभारने में मदद दी है, लेकिन उस उभरते पिछड़े वर्ग को मुलायम सिंह यादव, मायावती और लालू यादव की परिवार संचालित राजनीति में समुचित जगह नहीं मिल सकी है. उभरते दलित वर्ग का भाजपा की विकास राजनीति से जुड़ना एक सुनहरा मौका बन कर आया है. और ऐसे में अल्पसंख्यक खुद को ठगा सा महसूस करें तो कोई हैरत की बात नहीं होगी.

इसलिए कई सारे अल्पसंख्यक नेताओं का रुझान भी भाजपा की विकास राजनीती की तरफ होना अवसरवाद दौड़ की ताजा मिसाल है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या भारतीय जनता पार्टी में ये बदलाव सिर्फ भाषा का बदलाव है? क्या भाजपा जातीय और धार्मिक समीकरण पर केन्द्रित भारतीय राजनीति को विकास और भ्रष्टाचार के एक नए समीकरण पर चलाना चाहती है, जिसे पैदा तो अन्ना हजारे के इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने किया और उसका राजनीतिकरण अरविन्द केजरीवाल ने किया और उसके फल नरेंद्र मोदी खाना चाहते हैं.

क्या दलित मतदाताओं का भाजपा और मोदी की तरफ झुकाव सामाजिक न्याय के उद्देश्य को पूरा करने में सहायक सिद्ध होगा? और क्या नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी अपनी वैचारिक और सैद्धान्तिक मुस्लिम विरोध से खुद को दूर करके एक सेक्युलर पहचान हासिल करने में सफल होंगे ?

बहरहाल, भाजपा के अंदरूनी बदलाव, नरेंद्र मोदी के उभार और कथित विकास राजनीति के बीच में दरअसल सिर्फ मौकापरस्ती का रिश्ता नज़र आ रहा है, न तो भाजपा का ब्राह्मणवाद बदला है और न उसके अन्दर समाजिक न्याय के लिए उनकी सोच में कोई अंदरूनी और नीतिगत या पार्टी के अन्दर किस किस्म का परिवर्तन दिख रहा है. मोदी को पार्टी का चेहरा बना देने मात्र से पार्टी के पदों पर ब्राह्मणों और ऊंची जाती के लोगों का वर्चस्व कम नहीं हो जायगा और ना ही दलितों और पिछड़ों के मुहल्लों में भाजपा की इकाइयों का अचानक विस्तार हो जायगा.

पार्टी में दलित चेहरे खरीद खरीद कर लाने पड़ रहे हैं, जो पार्टी हिंदुत्व और हिन्दू धर्म के आधार पर सामाजिक सरंचना पर विश्वास करती हो वो अम्बेडकर के “मैं हिन्दू पैदा हुआ था लेकिन हिन्दू मरूँगा नहीं” की हद तक खुद को कैसे बदल सकती है, ये मानने के लिए कोई बदलाव नहीं दिख रहा है कि भारतीय जनता पार्टी अपने आप को हिंदुत्व और हिन्दू सामाजिक सरंचना से खुद को अलग करने की कोशिश कर रही है.

दूसरा बड़ा निराश करने वाला मामला ये है कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता के लिए खुद अपने वजूद को दांव पर लगा चुकी है. पार्टी के अन्दर तेज़ी के साथ मोदी का व्यक्तित्व पार्टी से ऊपर उठता जा रहा है, जिसको लेकर पार्टी को बनाने वाले पुराने नेताओं में बेचैनी वाजिब है. जिस तरह से अडवानी और मुरली मनोहर जोशी की बेइज्जती हो रही है और संगठन को मोदी के आगे नतमस्तक कर दिया गया है, उससे ये उम्मीद और भी ख़त्म हो चली है कि भाजपा में सामाजिक न्याय का मुद्दा महत्वपूर्ण हो सकेगा. मोदी के दरबारियों में जो लोग शामिल हैं वो संगठन नहीं बल्कि मीडिया और कार्पोरेट घरानों के एजेंट हैं, जिन्होंने मोदी के ऊपर करोड़ों रुपए दांव पर लगा रखे हैं.

अन्ना और केजरीवाल द्वारा तैयार किये गए भ्रष्टाचार और विकास के बहुप्रचारित मुद्दों को नरेंद्र मोदी जिस ढंग ले उड़े हैं, उससे भाजपा के पुराने मुद्दों की चमक तो फीकी पड़ रही है, साथ में ये शक भी मज़बूत हो गया है कि मोदी की दावेदारी दरअसल कारोबारी घरानों के महलों में तय पायी है जो भाजपा के पार्टी संगठन को पूरी तरह से खरीद लेने या मोदी के क़ब्जे में लाने के लिए कोई भी कीमत दे सकते थे.

अब रही बात ये की मोदी का विवादित मुद्दों से दूर रहना क्या इस बात का प्रमाण है कि भाजपा के अन्दर सोच का बदलाव आरहा है? क्या भाजपा में मुस्लिम समाज के प्रति हिंसक सोच में कोई बदलाव आरहा है? ये समझना इसलिए आसान है कि नरेंद्र मोदी की पूरी चुनावी मुहिम में अल्पसंख्यक मतदाताओं को जोड़ने का कोई ख़ास उत्साह नहीं दिख रहा है. सिर्फ इतनी चिंता है कि विवादित मुद्दों से दूर रहा जाय, ताकि सीटों की कमी पड़ने पर नए सहयोगी तलाश किये जा सके.

अभी तक के उम्मीदवारों की लिस्ट से भी जाहिर है कि पार्टी अभी तक मुस्लिम उम्मीदवारों को मौका देने के लिए दिमागी तौर पर तैयार नहीं है. उत्तर प्रदेश और बिहार जहां जातीय और धार्मिक समीकरणों ने भाजपा को बेमाना बना कर रख दिया था. पार्टी इस समीकरण को बिगाड़ने वाले सभी रास्तों और विकल्पों पर अमल कर रही है. मुज़फ्फरनगर दंगा इसकी एक साफ़ मिसाल है, जहां मुस्लिम-पिछड़ों की राजनितिक एकता अब बहुत कमज़ोर हो गई है.

ऐसे में नरेंद्र मोदी की मीडियाबाज़ी को कांग्रेस के घोटालों की वजह से कुछ ज्यादा ही खुराक मिल गई है. लेकिन अन्ना और केजरीवाल के मुद्दों पर रंग जमाने वाले नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए असली चैलेंज कहीं और नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी के भीतर हैं, जहां उन्हें भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय, साम्प्रदायिकता पर साफ़ साफ़ बातें करनी होंगी, क्योंकि सामाजिक न्याय सिर्फ टाटा और अम्बानी की खैरात बांटने का नाम नहीं है, बल्कि दबे कुचले लोगों को बराबरी पर आने देने के लिए रास्ता देने का नाम है जो करना मोदी की वैचारिक प्रशिक्षण और नवउदारवाद के बुनयादी ज़रूरतों के खिलाफ है.

मोदी को लगता है कि जनता तमाशे को देख कर वोट देगी या मोदी के चेहरे को देख कर वोट करेगी, लेकिन मोदी असली इम्तिहान में फ्लॉप हो रहे हैं, क्योंकि वो जनता के लिए अपने उमीदवारों का ऐलान करने के लिए अपनी तंगनज़र सोच और कारोबारी घरानों के दबाव से बाहर निकलने का साहस नहीं दिखा सके हैं. येदुरप्पा की ख़ुशी और मुरली मनोहर जोशी की नाराज़गी एक मजबूर मोदी की तस्वीर दिखाती हैं और ऐसे मजबूर नरेंद्र मोदी से उम्मीदें करना बेकार है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध छात्र हैं.)

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