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हाशिमपुरा: लोकतांत्रिक, राजनीतिक, सामाजिक व न्यायिक व्यवस्था की हार…

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

22 मई, 1987… मेरठ के हाशिमपुरा में जो कुछ हुआ वो नंगी आंखों के सामने का सच है. 42 लोग मार दिए गए. इन्हें किसने मारा…? इसका सच हाशिमपुरा के लोगों के ज़बान पर आज भी है. बल्कि यूं कहिए कि जाने-पहचाने चेहरों के साथ मौजूद है.

हाशिमपुरा हत्याकांड का सबूत गली कूचों से लेकर नहर के तलहट्टी तक आज भी बिखरे हुए हैं. पर अफसोस इस बात की है कि खुद के ‘सेक्यूलर’ होने का डंका पीटने वाली सरकारें सिर्फ भाई-भतीजावाद के नाम पर खुलेआम इंसाफ का गला घोंट देती हैं. पुलिस बिक जाती है… सीबीआई गुमराह हो जाती है… और सत्ता में बैठे नुमाइंदे इस अनैतिक जीत पर जश्न मनाते हैं.

28 सालों के बाद आज भी हाशिमपुरा किसी भयावह हादसे की तरह हमारी आंखों के आगे मंडरा रही है. पीढ़ियां बीत गईं. वक़्त बीत गया. पर हाशिमपुरा का दर्द न बीता, न बदला. आज भी हाशिमपुरा की गलियों में खौफ व निराशा का वही माहौल है, जो 28 साल पहले थी.

दरअसल, गोधरा से लेकर हाशिमपुरा तक बेगुनाहों के क़त्ल की कहानी एक ऐसी हक़ीक़त से पर्दा हटाती है, वो ये है कि सत्ता का सिर्फ एक ही मज़हब या चरित्र होता है और वो है –इंसाफ का गला घोंटना…

प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी यानी पीएसी के ज़ुल्म की कहानी सिर्फ हाशिमपुरा पर आकर खत्म नहीं होती. अगले दिन मलियाना भी ‘सरकारी गुंडों’ के ज़ुल्म का शिकार हुआ था. यहां की तंग गली-कुचों में रहने वाले लोग आज भी उस दिन के ‘टेरर’ को याद करके सहम जाते हैं. यहां भी इस ‘ऑप्रेशन मुस्लिम मर्डर’ में 73 लोगों ने दम तोड़ा था. मारे गए लोगों में से सिर्फ 36 लोगों की ही शिनाख्त हो सकी. बाकी लोगों को प्रशासन अभी भी लापता मानती है. इस भयावह हादसे की सुनवाई बेहद ही सुस्त चाल से फास्ट ट्रैक कोर्ट में चल रही है.

हाशिमपुरा-मलियाना का एक तो क़ानूनी पक्ष है. जिसपर आजकल सारे लोग बात कर रहे हैं. लेकिन उससे अधिक ज़रूरत इसके राजनीतिक व सामाजिक पहलू पर बात करने की है. जानकार बताते हैं कि हाशिमपुरा-मलियाना सांप्रदायिक हिंसा पर गठित 6 आयोगों की रिपार्टों को सरकार दबाकर बैठी हुई है.

सूचना के अधिकार कानून के तहत 26-27 साल बाद भी जब हाशिमपुरा और मलियाना की हकीक़त जानने की हमने कोशिश की तो अखिलेश सरकार के अधिकारी पहले तो जवाब देने से कतराए, लेकिन प्रथम अपील के बाद जबाव तो दिया, लेकिन दंगे की जांच के लिए बने आयोग की रिपोर्ट देने से मना कर दिया.

दरअसल, यूपी की ‘मुस्लिम हितैषी’ सरकार  मुसलमानों पर ज्यादा ही मेहरबान है, इसलिए तो उनकी सरकार के अधिकारी 28 साल पहले हुए दंगों की रिपोर्ट यह कहकर देने से इंकार कर दिया कि इसको सार्वजनिक किया जाना जनहित में नहीं है.

हमने गत वर्ष उत्तर प्रदेश के गृह, गोपन एवं कारागार प्रशासन विभाग को आरटीआई दाखिल कर हाशिमपूरा-मलियाना दंगे पर बनी कमिटियों की रिपोर्ट की फोटोकॉपी उपलब्ध कराने को कहा था. लेकिन तय समय सीमा गुज़र जाने के बाद भी उत्तर प्रदेश के इस विभाग ने कोई जानकारी नहीं दी. फिर कानून के प्रावधानों के तहत प्रथम अपील की. अपील के बाद उत्तर प्रदेश शासन के गृह (पुलिस) अनुभाग के अनु. सचिव सी.एल. गुप्ता का जवाब हैरान करने वाला था.

उन्होंने लिखित रूप में बताया है कि “मलियाना में दिनांक 23 मई, 1987 को हुए दंगों की जांच हेतु कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट-1952 के तहत एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया गया था. उक्त अधिनियम की धारा- 3(4) की व्यवस्था के आलोक में उक्त जांच आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखे बिना जांच रिपोर्ट अथवा उसके किसी भी अंश को सार्वजनिक किया जाना जनहित में नहीं है.”

आगे उन्होंने लिखा कि “जहां तक हाशिमपुरा दंगे के संबंध में मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए जाने का सम्बंध है, यह उल्लेखनीय है कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (डी) एवं (एच) की व्यवस्ता के आलोक में मांगी गई सूचना उपलब्ध कराया जाना संभव नहीं है.”

आगे बढ़ने से पहले अब हम आपको बताते चले कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (डी)  के मुताबिक ऐसी सूचना आपको नहीं मिल सकती, जिसमें वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता या बौद्धिक सम्पदा सम्मिलित हो, और जिसके प्रकटन से किसी पर व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को नुक़सान होता है… (साथ ही इस धारा में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि अगर सूचना लोक हित में है तो देने से मना नहीं किया जा सकता.)

वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (एच)  के मुताबिक ऐसी सूचना आपको नहीं मिल सकती, जिससे अपराधियों के अन्वेषण, पकड़े जाने या अभियोजन कि क्रिया में अड़चन पड़े.

अब यह अखिलेश सरकार या उनके अधिकारी ही बेहतर बता सकते हैं कि हाशिमपुरा दंगे की रिपोर्ट देने से किस व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को नुक़सान पहुंच रहा है या वो किन अपराधियों के अन्वेषण, पकड़े जाने या अभियोजन की क्रिया में अड़चन पड़ने की बात कर  रहे हैं?

यह इन्हीं ‘सेक्यूलर’ सरकारों की सच है कि इस मामले में मुक़दमा शुरू होने में ही 19 बरस लग गए और इस दौरान पीएसी के जिन 19 जवानों को इस मामले में अभियुक्त बनाया गया, उनमें से 16 ही जीवित बताए जा रहे हैं. किसी भी बड़े अधिकारी का नाम इस मुक़दमें में नहीं था, जिनके आदेश पर इन जवानों ने यह हत्याकांड अंजाम दिया था.

इस मामले से जुड़े सरकारी दस्तावेज़ों को सार्वजनिक करवाने और फ़ाइलों में दबी बातों को उजागर करने के मक़सद से हाशिमपुरा कांड के कुछ पीड़ितों और मृतकों के परिजनों ने 24 मई 2007 को उत्तर प्रदेश पुलिस और गृह विभाग से सूचनाधिकार क़ानून के तहत आवेदन करके इस कांड से संबंधित सभी दस्तावेज़ मुहैया कराए जाने की माँग की थी. पीड़ितों और मृतकों के परिजनों की ओर से राज्य सरकार के पास 615 आवेदन जमा किए गए थे, जिनमें पुलिस महकमे से कई अहम सवाल पूछे गए थे. मसलन, इस हत्याकांड में शामिल पीएसी जवानों के ख़िलाफ़ अभी तक महकमे ने क्या कार्रवाई की है. (इस आरटीआई की रिपोर्ट बीबीसी पर उनके संवाददाता पाणिनी आनंद द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है.)

उस आरटीआई के जवाब में उत्तर प्रदेश पुलिस के सीबी-सीआईडी विभाग की ओर से जो जानकारी पीड़ितों की मिली थी, उसमें लगभग 19 पन्ने ऐसे थे जिनमें या तो कुछ भी नहीं लिखा था और या फिर इतनी ख़राब प्रतियाँ थी कि शायद ही कोई उन्हें पढ़ सके. और तो और, इस घटना से संबंधित कई कागज़ात जानकारी में शामिल ही नहीं किए गए थे और कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ लोगों को दिए ही नहीं गए.

जब इस संबंध में उस समय बीबीसी के संवाददाता पाणिनी आनंद (जो फिलहाल राज्यसभा टीवी में कार्यरत हैं) ने इस बारे में उत्तर प्रदेश पुलिस के सीबी-सीआईडी विभाग के उस समय के महानिदेशक अमोल सिंह से पूछा था कि इस तरह अधूरी जानकारी क्यों दी गई है तो उनका कहना था कि अगर जानकारी मांगने वाले उनके संज्ञान में यह बात लाते हैं तो उसे सुधारने की कोशिश की जाएगी.

जब पाणिनी आनंद ने यह पूछा कि विभाग बिना यह देखे-जाने कि लोगों को क्या और कितनी जानकारी दी जा रही है, कोई भी जानकारी विभागीय मोहर लगाकर कैसे दे सकता है? इस पर उन्होंने कहा, “आप अपने दायरे में रहकर जानकारी मांगें और सवाल करें. आप यह सवाल नहीं पूछ सकते. हाँ, मैं मानता हूँ कि ग़लती हो गई होगी पर इसके लिए अपील करें तो आगे देखूँगा कि क्या किया जा सकता है.”

यही नहीं, जिन पुलिसकर्मियों पर इस हत्याकांड में शामिल होने का आरोप है और जिन्हें इस मामले में अभियुक्त बनाया गया है, उनके वार्षिक पुलिस प्रगति रजिस्टर की 1987 की प्रतियाँ देखने से पता चलता है कि विभाग किस ‘ईमानदारी’ से कार्रवाई कर रहा है. मसलन, अधिकतर के लिए लिखा गया था – “काम और आचरण अच्छा है. सत्यनिष्ठा प्रमाणित है. श्रेणी-अच्छा, उत्तम.”

एक अन्य पुलिसकर्मी के लिए लिखा गया है – “स्वस्थ व स्मार्ट जवान है. वाहिनी फ़ुटबॉल टीम का सदस्य है. वर्ष में दो नक़द पुरस्कार व दो जीई पाया है. काम और आचरण अच्छा है. सत्यनिष्ठा प्रमाणित है. श्रेणी- अच्छा.”

अगर देखा जाए तो इस पूरे मामले में राज्य सरकार का जो रूख रहा है वह उसके दोहरे चाल, चरित्र और चेहरे को उजागर करती है. और इससे भी मज़ेदार यह कि ऐसा किसी एक दल के बारे में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पिछले 28 सालों में लगभग सभी दलों ने उत्तर प्रदेश में शासन किया है. लेकिन अब तक इनके मज़लूमों को इंसाफ नहीं मिल सका है.

और 28 साल बाद जो अदालत का फैसला आया है, उसने देश के हर इंसाफ-पसंद इंसान के ग़म को और बढ़ा दिया है. मानो अदालत ने यह कहा हो –भारत में मुसलमान दोयम दर्जा के नागरिक हैं. न उनकी ज़िन्दगी मायने रखती है और न मौत…

आज भारत का हर समझदार नागरिक यह सवाल कर रहा है कि उन 42 लोगों का क़ातिल कौन है? हो सकता है कि पीड़ितों को मुवाअज़ा भी दे दिया जाए या दे दिया गया हो, पर क्या मुवाअज़ा इंसाफ की जगह ले सकता है?

खैर, सभी सबूतों व गवाहों की रौशनी में अदालत ने क़ातिलों को बेगुनाह क़रार दिया. ये सिर्फ हिन्दुस्तान में ही हो सकता है कि क़ातिल बेगुनाह हो… अगर क़ातिल बेगुनाह हैं तो सवाल यह उठता है कि 42 मुसलमानों के क़ातिल कौन हैं? पीएसी के वो जवान, जो शायद किसी अधिकारी के आदेश का पालन करते हुए अपनी रायफलों के ट्रीगर दबा रहे होंगे. या हमारी राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था जो मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक समझती है.

आज भारत का मुसलमान हाथ में संविधान लिए यह पूछ रहा है कि हमारे अधिकार कहां हैं? सिर्फ संविधान में या हक़ीक़त में भी…? हमारी अदालतें कौन से संविधान का पालन कर रही हैं? एक तरफ तो ‘जन-भावना’ व ‘आस्था’ का ख्याल रखा जाता है, तो दूसरी तरफ सबूतों को तरजीह देती है, फैक्ट व सच्चाई को तरजीह नहीं दिया जाता. इसी देश में गरीबों व मज़लूमों पर ज़ुल्म होता है, पर हमारी अदालतें इंसाफ नहीं करतीं. बात सिर्फ हाशिमपूरा तक सीमित नहीं है, इससे पूर्व बाथेपूर में भी अदालत का ‘इंसाफ’ इस देश की जनता देख चुकी है.

इससे भी अधिक खतरनाक है हमारे तथाकथित रहनुमाओं व क़ौम के ठेकेदारों का खामोश हो जाना. जबकि इस समय यूपी के इतिहास में सबसे अधिक मुस्लिम विधायक इसी सरकार में हैं. हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि जो मुसलमानों के कौमी व मिल्ली लीडर हैं, उनका इस केस में क्या किरदार रहा है?

दाद देनी चाहिए हाशिमपुरा के उन पांच पीड़ितों के हिम्मत व हौसले को, जो अदालत में पेश हुए और बहादुरी के साथ गवाही दी. उनकी गवाही सुनकर किसी की भी रूह कांप सकती है. उनके गवाही से ही यह दुनिया जान सकी कि पुलिस वाले किस तरह से सोच समझ कर, निर्दयतापूर्वक, यंत्रणापूर्ण और निर्लज्ज तरीके से अपराध कर रहे थे मानो उन्हें किसी सजा का कोई डर ही न हो.

दरअसल, ये हाशिमपुरा के पीड़ितों की हार नहीं है जो 28 सालों तक इंसाफ के लिए बहादुरी के साथ लड़े.  अपने संघर्ष में हमेशा गरिमापूर्ण बने रहे और उन्होंने हमेशा इस बात पर यकीन किया कि इंसाफ किया जाएगा. बल्कि ये तो हमारी लोकतांत्रिक, राजनीतिक, सामाजिक व न्यायिक व्यवस्था की हार है…

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