India

मुज़फ़्फ़रनगर दंगे: किताबें जलीं, हिम्मत भी राख

Dilnawaz Pasha

वे जब घर छोड़कर भागे तो बस अपनी जानें ही साथ ले जा पाए. बाक़ी जो कुछ बचा वो या तो जलकर राख हो गया या उसे दोबारा हासिल करने की हिम्मत वे नहीं जुटा सके. वे मुज़फ़्फ़रनगर के दंगा पीड़ित हैं जो आज भी राहत कैंपों में रहने को मजबूर हैं.

दंगा पीड़ितों में बड़ी तादाद ऐसे बच्चों की भी है जो दंगों से पहले स्कूल जाते थे लेकिन अब उनकी पढ़ाई पूरी तरह छूट गई है. सबसे ज़्यादा दिक्कत उन बच्चों को है जो दसवीं और 12वीं की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे. इनमें से भी दंगों का सर्वाधिक असर लड़कियों पर हुआ है. दसवीं और बारहवीं में पढ़ने वालों लड़कों ने तो किसी तरह फिर से दाखिला लेने की कोशिशें भी की हैं लेकिन लड़कियों की पढ़ाई पूरी तरह छूट गई है.

कुटबा गाँव की रहने वाली रुख़सार बानो 12वीं क्लास में पढ़ती थी और रोज़ स्कूल जाती थी लेकिन दंगों के बाद से उसके हाथों में किताब नहीं आई है. रुख़सार कहती है, “मैं पहले स्कूल जाती थी, अब राहत कैंप में हूँ, बताइए कैसे स्कूल जाएं. किताबें गाँव में ही जल गईं.”

तमाम दिक्कतों के बावजूद रुख़सार बानो इम्तिहान देना चाहती हैं. वह कहती है, “मैं बारहवीं के इम्तिहान देना चाहती हूँ. भले ही फ़ेल हो जाऊँ.” रुख़सार की छोटी बहन यासमीन भी इस बार दसवीं क्लास में पढ़ रही थीं. वह भी दंगों के बाद से स्कूल नहीं जा पाई है और न ही इम्तिहान की तैयारी करने के लिए उसके पास कोई किताब है.

किसी को फिक्र नहीं

यासमीन कहती है, “दंगों के बाद हमारी पढ़ाई की फ़िक्र किसी को नहीं हुई. न ही किसी ने हमसे पूछा कि तुम्हारे इम्तिहान का क्या होगा?”

इस सवाल पर कि क्या वह अब भी पढ़ना चाहती हैं, यासमीन कहती है, “कौन है जो आगे बढ़ना नहीं चाहता. पढ़ेंगे तो ही आगे बढ़ेंगे लेकिन अब हम कैसे पढ़ें. डर की वजह से घरवाले भी अब स्कूल नहीं भेजना चाहते.”

कुटबा गाँव की ही रहने वाली वाजिदा आठवीं क्लास में पढ़ती थी. दंगों के बाद से वह भी स्कूल नहीं गई है. रुख़सार, यासमीन और वाजिदा की तरह ही कैंप में और भी बहुत सी लड़कियाँ हैं. वे परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं लेकिन दंगों के बाद परीक्षा देने को लेकर ही आश्वस्त नहीं हैं.

कैंप में रहने वाली एक भी लड़की अब स्कूल नहीं जाती है. इन बच्चियों के माँ-बाप डरे हुए हैं. एक बच्ची के पिता ने कहा, “जहाँ चिंता जान की हो वहाँ बच्चों की पढ़ाई का कौन सोचे. हर माँ-बाप चाहता है कि उसके बच्चे पढ़ें लेकिन अभी बच्चों को स्कूल भेजना हमारे लिए मुमकिन नहीं हैं. हम ज़िंदगी और भयावह हालात से उबरने की कोशिश कर रहे हैं.”

मदरसे

मैं जब दंगों के तुरंत बाद बसीकलाँ गाँव गया था तो यहाँ के मदरसे में राहत कैंप लगा था और मदरसे में तालीम हासिल करने वाले बच्चे दंगा पीड़ितों की सेवा में लगे थे. उस समय उनकी मदरसे की तालीम भी पूरी तरह रुक गई थी. अब क़रीब चार महीने बाद मदरसों में तालीम फिर से शुरू हो गई है. जब हम पहुँचे तब बसीकलाँ मदरसे के बच्चे दीन की तालीम में तल्लीन थे.

दंगा पीड़ितों के बच्चों को भी दीन की तालीम तो दी जा रही है लेकिन स्कूली शिक्षा से वे दूर हो गए हैं.

मुज़फ़्फ़रनगर के लोई कैंप में फ़ैसल एक ग़ैर सरकारी संगठन की मदद से छोटे बच्चों के लिए एक अस्थाई स्कूल चला रहे हैं. जब हम लोई पहुँचे तो फ़ैसल के इस स्कूल में करीब डेढ़ सौ बच्चे थे जो गिनतियाँ गिन रहे थे.

फ़ैसल बताते हैं, “बच्चे राहत कैंप में दिन भर खेलते रहते थे. हम उन्हें यहाँ पक्की इमारत में बैठाकर उठना, बैठना किताब खोलना आदि सिखा रहे हैं. अभी हम सबको पढ़ा नहीं सकते क्योंकि हमारे पास शिक्षक नहीं हैं.”

फ़ैसल बताते हैं कि लोई कैंप में करीब 70 बच्चे ऐसे हैं जिन्हें बोर्ड की परीक्षाएं देनी थीं लेकिन वे किसी भी तरह की तैयारी नहीं कर पा रहे हैं. कुछ सामाजिक संगठनों ने उन तक गाइड बुक ज़रूर पहुंचाई हैं लेकिन शिक्षक की व्यवस्था नहीं हो सकी है.

शामली ज़िले के मलकपुर कैंप में भी इसी तरह का स्कूल गैर सरकारी संगठन की मदद से चल रहा है जहाँ करीब 300 बच्चे जाते हैं. लेकिन दसवीं और बारहवीं में पढ़ने वाले यहाँ रह रहे बच्चों के लिए भी कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं किया गया है.

मलकपुर कैंप में बेटी की पढ़ाई के बारे में पूछने पर एक महिला ने कहा, “लड़कियों का स्कूल जाना अब सही नहीं है. माहौल ख़राब है. हम अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने का ख़तरा नहीं उठा सकते. वे जाएँगी भी तो किसके साथ?”

कुल कितने बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है इसका आँकड़ा किसी गैर सरकारी संगठन ने अभी तक नहीं लगाया है.

सरकार तैयार

हालाँकि मुज़फ़्फ़रनगर के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा कहते हैं, “हिंसा प्रभावित गाँवों के 72 ऐसे बच्चों की पहचान की गई थी जिन्हें दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं देनी थीं. हमने इन बच्चों को अटेंडेंस में छूट और नज़दीक के स्कूल में फ्री दाखिले की सुविधा दी है. प्रशासन किसी भी तरह से इन बच्चों की मदद के लिए पूरी तरह तैयार है.”

कौशल राज कहते हैं, “ज़्यादातर बच्चों का दाखिला पसंद के स्कूलों में करा दिया गया है. हमने इलाहाबाद बोर्ड से बात की है ताकि इन बच्चों के परीक्षा केंद्र भी बदले जा सकें.”

लड़कियों की सुरक्षा के सवाल पर डीएम कहते हैं कि यदि स्कूल आने जाने के लिए हमसे सुरक्षा माँगी जाएगी तो हम वो भी उपलब्ध करवाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं.

हालाँकि कौशल राज शर्मा स्वीकार करते हैं कि तमाम प्रयासों के बावजूद दंगा पीड़ितों के बच्चे स्कूलों में नहीं जा रहे हैं.

वह कहते हैं, “हमने राहत कैंपों के पास के ही प्राथमिक स्कूलों में सभी बच्चों का नाम लिखवाया है. मिड डे मील की पूरी व्यवस्था की गई है. फ्री किताबें भी उपलब्ध करवाई गई हैं लेकिन फिर भी बहुत कम बच्चे ही स्कूलों में आ रहे हैं. हमारी चुनौती माहौल को फिर से पहले जैसा करने की है जिसमें हम जुटे हुए हैं. 90 प्रतिशत माहौल बेहतर हो गया है. बाकी दस प्रतिशत के लिए हमारा पूरा प्रशासन जुटा है.” (Courtesy: http://www.bbc.co.uk/hindi)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]