Edit/Op-Ed

कोरमा-बिरयानी के बीच कब तक हमारी आवाज़ दफन होती रहेगी?

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर (IICC) में बीते दिन बेहद ही अहम थे. मुसलमानों के लिहाज़ से देश के इस बेहद ही अहम सांस्कृतिक केन्द्र में पिछले कई दिनों से राजनीत की उठा-पटक जारी रही. दिल्ली में मौसम बेहद सर्द होने के बावजूद IICC की दीवारों से राजनीतिक तवे पर सिक रही रोटियों की गर्माहट छाई हुई थी. मौक़ा IICC के पदाधिकारियों के चुनाव का था.

इस चुनाव में पैसा पानी की तरह बहता रहा और IICC के कथित रहनुमा सत्ता पर क़ब्ज़े की लड़ाई के समीकरण बैठाते रहे. बिरयानी, चिकन व मटन की गंध… ऐसा लगा कि IICC से निकल कर लूटियन ज़ोन समेत दिल्ली के तमाम पॉश व मुस्लिम इलाक़ों में फैल गई हो. जम कर दावतें हुई. गोया IICC का चुनाव न हो, बल्कि दिल्ली की चांदनी चौक सीट पर कांग्रेस व बीजेपी की बीच चुनाव जीतने की नुराकुश्ती हो. इतने संसाधन झोंक दिए गए कि लगा दिल्ली विधानसभा का कोई मिनी इलेक्शन हो रहा है. महेश भट्ट, गुलाम नबी आज़ाद, दिग्विजय सिंह, डॉ. फारूक़ अब्दुल्लाह, सलमान खर्शीद, राजीव शुक्ला, डॉ. हर्षवर्धन, सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन, रशीद मसूद के साथ-साथ कई भूतपूर्व गवर्नर, पूर्व जस्टिस, आईएएस, आईपीएस व आईएफएस अफसरान इस इलेक्शन के प्रचार-प्रसार व वोट देने वालों में शामिल रहें.

महज़ 2800 सदस्यों का चुनाव एक ऐसा सियासी आखाड़ा बना कि आम सभा चुनावों के सारे दांव पेंच यहां कम नज़र आने लगे. सियासत इस क़दर हावी हुई कि मामला अदालत तक पहुंच गया. लेकिन अदालत ने खुद को इससे दूर रखना ही मुनासिब समझा. आखिर यह विडंबना ही है कि एलिट क्लास के इस चुनाव को तमाम आम मुसलमानों के इज़्ज़त का सवाल बना दिया गया. बार-बार चुनाव लड़ रहे नेताओं के अपने भाषण में इस सेंटर को विश्व स्तर पर एक पहचान दिलाकर मुसलमानों की इज्ज़त बनाने की बात की जाती रही.

उर्दू अखबारों में तो इसकी ज़बरदस्त खुमारी चढ़ी हुई थी. हर दिन हर उर्दू अखबार के हर पन्ने पर विज्ञापन और खबरें  2014 लोकसभा चुनाव का अहसास दिला रहे थे. हालांकि यह पूरी लड़ाई सिर्फ दो गुटों में ही लड़ी जाती रही. पहेल यानी सिराजुद्दीन कुरैशी के गुट में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन सफदर एच खान, सीबीआई/पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पूर्व प्रवक्ता व वर्तमान में दूरदर्शन के महानिदेशक एसएम खान, दिल्ली पुलिस के पूर्व आईपीएस अधिकारी क़मर अहमद समेत कई नामचीन लोग शामिल रहे. वहीं डॉ. शकीलुज़्ज़मा अंसारी के गुट में भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी, व्यापारी, कांग्रेस के नेता शामिल थे. यह दोनों गुट पूरे चुनाव में मुसलमानों के कल्याण व सेवा करने की बात करते रहें. लेकिन सवाल यह उठता है कि जब यह सभी लोग नौकरशाह थे तब मुसलमानों की कोई सेवा क्यों नहीं की और अब वह इस इस्लामिक सेंटर की आड़ में मुसलमानों की सेवा क्यों करना चाहते हैं? जब यह सारे लोग राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़े हुए हैं तो ग़रीब व आम लोगों के मुद्दे पर इनकी ज़बान को लकवा क्यों मार जाता है?

ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि वक़्त के इसी दौर में मुज़फ्फरनगर व शामली के रिलीफ कैम्पों में गरीब मुसलमानों के बच्चे गरीबी और ठंड की मौत मर रहे हैं. और पिछले साल असम में हुए दंगा के पीड़ितों को तो हम पूरी तरह से भूल ही चुके हैं.

ये सारा वाक़्या कई जलते हुए सवाल खड़े करता है. मसलन मुसलमानों के रहनुमा इस्लाम के नाम पर किसकी रहनुमाई कर रहे हैं? करोड़ों का यह बजट किसके पैसों से फूंका जा रहा है? निजी जीत-हार का बोझ समाज के कंधों पर कब तक डाला जाएगा? और सवाल यह भी है कि मुज़फ्फरनगर व शामली के नाम पर मीडिया के सामने दिखने वाली मज़हबी बेचैनी आखिर बिरयानी व कोरमा के स्वाद और कहकहों के शोर में कब तक दफन होती रहेगी? ये दो-मुंहा रवैया कब तक जारी रहेगा? हमें इन तमाम सवालों का जवाब अब ढ़ूंढ़ना ही होगा. साथ ही यह भी सोचना पड़ेगा कि IICC जैसी संस्थाओं से आम गरीब मुसलमानों का क्या फायदा हो रहा है? और अगर कोई फायदा नहीं हो रहा है तो फिर हम अपने नाम पर यह सियासत क्यों होने दे रहे हैं? इन सारे सवालों के साथ-साथ सिराजुद्दीन कुरैशी साहब को तीसरी बार जीत के लिए मुबारकबाद…

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