Edit/Op-Ed

गन्ने की कड़वाहट से हो रही एक और आत्महत्या का इंतज़ार!

Abhay kumar Singh for BeyondHeadlines

नए वर्ष का आगमन हो गया है. नई सरकार नए इरादों के साथ देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पटकथा लिखने में व्यस्त है. सरकार कभी स्मार्ट सिटी की बातें करती है तो कभी बुलेट ट्रेन की.  इन सारे विकास के वादों एवं ‘अच्छे’ दिनों की राह तकते हुए देश के गन्ना किसान आज भी केवल इंतज़ार करने को ही बेबस हैं.

लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक देश  के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, और कर्णाटक के गन्ना किसानों के लिए कोई कारगर पहल की शुरुआत नहीं की गयी. उपेक्षा का यह सिलसिला पिछले संप्रग सरकार से ही चला आ रहा है.

आंकड़ों के अनुसार इन राज्यों में सरकारी और निजी मिलों पर किसानों का लगभग 1000 करोड़ रूपए का भुगतान शेष है. गन्ना एक नकदी फसल है, जो इन किसानों के लिए खास मायने रखती है. कभी बेटी के ब्याह में और कभी बच्चों की पढ़ाई में इसी फसल द्वारा कमाई गयी नकदी किसानों के काम आती है. लेकिन गन्ने का मूल्य न तय हो पाने, चीनी मिलों द्वारा भुगतान रोक दिए जाने और पेराई सत्र के देर से शुरू होने जैसे कारणों के वजह से आज गन्ना किसान इस फसल को उगाने से भी हिचकिचा रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में गन्ने के फसल के हालात साल दर साल ख़राब होते जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश गन्ना निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2013-14 में गन्ने का क्षेत्रफल 23.60 लाख हेक्टेयर था, जो वर्ष 2014-15 में घटकर 21.30 लाख हेक्टेयर रह गया. यह गिरावट लगभग 10 फीसदी का है. स्थिति और भी ख़राब हो सकती थी. 10 फीसदी के गिरावट के मायनों को समझे तो पाएंगे कि मध्य एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तेज़ी से गिरावट आयी है. यह दोनों ही क्षेत्र भारत के गन्ना उत्पादन का 30-35 प्रतिशत उपजते हैं.

इस गिरावट की सबसे बड़ी वजह चीनी मिलों द्वारा समय से भुगतान न किया जाना है. उत्तर प्रदेश में चीनी मिल मालिकों की भी अपनी मजबूरियां हैं. इसके पीछे का इतिहास यह है कि 2004-2005 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने शुगर प्रमोशन पॉलिसी शुरू की, जिसके चलते कई निजी चीनी मिलों की स्थापना हुई. परंतु चुनाव में जाने से पहले सरकार ने किसान वोट बैंक के चक्कर में राज्य समर्थित गन्ना मूल्य में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी कर दी.

यह सिलसिला मायावती कार्यकाल में भी चलता रहा और न्यूनतम समर्थित मूल्य अतार्किक रूप से बढ़ाया जाता रहा. जिसके चलते नीजि क्षेत्र के मिल मालिकों की कमर टूट गई. आशय यह है कि नीतियों के गलत क्रियान्वयन के कारण हालत यह है कि गन्ना किसान और चीनी मिल मालिक दोनों ऐसे भंवर में फंसे हुए हैं कि निकलना मुश्किल हो गया है. कहीं मिल मालिक आगामी सत्र में पेराई न करने का नोटिस दे रहे हैं तो कहीं किसान समय से भुगतान न मिलने के कारण मिलों पर ताला जड़ रहे हैं.

देश भर में लगभग स्थिति समान है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या का सुध लेते हुए खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान सहित छः मंत्रियों को गन्ना किसानों की समस्या सुलझाने का आदेश दिया है. लेकिन अभी तक इस बारे में कोई कारगर उपाय होता नहीं दिख रहा है.

परिस्थितियां हाथ से निकलती जा रही हैं. अगर कुछ ही समय में कोई कारगर उपाय नहीं निकाला गया तो किसान और मिल मालिक दोनों  की कमर टूट जाएगी. अब देखना है कि सरकार कोई कारगर क़दम उठाती है या गन्ने की कड़वाहट से हो रही एक और आत्महत्या का इंतज़ार करती है !

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