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रमज़ान मेरे लिए फैसीनेशन है… रमज़ान के रोजों को मैं भी रखना चाहती हूं…

आज लोगों की ज़िन्दगी व्यस्त होती जा रही है. साथ ही वर्क लोड भी बढ़ता ही जा रहा है. और जब बात यंग जेनरेशन की हो, युवाओं की हो तो वह और भी ज्यादा व्यस्त हैं. लेकिन इन सब के बावजूद भी वे रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना नहीं भूलते हैं. कैसी होती है रमज़ान के दिनों में उनकी दिनचर्या? इससे कामों पर क्या असर पड़ता है. इसी विषय पर हमने कई युवकों से बातचीत की.

BeyondHeadlines News Desk

एक मीडिया हाउस में काम करने वाले वाहिद बताते हैं कि रमज़ान मेरे लिए फैसीनेशन है. रोज़े के दौरान तमाम रूटीन उलट पूलट जाते हैं, लेकिन आफिस का काम इससे प्रभावित नहीं होता. इफ्तार करना, वह भी दोस्तों के साथ, बड़ा ही मजे़दार होता है.

जामिया में पढ़ने वाले एक छात्र रेयाज आलम का कहना है कि दो साल पहले तक क्लास में व्यस्त के कारण कुछ भी महसूस नहीं होता था, लेकिन इस बार छूट्टियों के कारण भूख का अहसास ज़्यादा ही होता है. दिनभर आराम करता हूं, लेकिन 5 बजे के बाद से इफ़्तार बनाने में व्यस्त हो जाता हूं. इस समय हमें घर की याद ज़रूर सताती है. घर पर बनने वाले तरह-तरह के पकवानों की याद आती है.

एक कम्पनी में कार्यरत मो॰ हसन का कहना है कि मुझे सीग्रेट पीने की आदत है और आफिस में बाकी के दोस्त मेरे सामने ही सिग्रेट पीते है. ऐसे में इसकी तलब और बढ़ जाती है, लेकिन कंट्रोल करना पड़ता है यार. पर हां इससे काम पर कोई असर नहीं पड़ता.

कहा जाता है लड़कियां व औरतों का मुह दिन भर चलता ही रहता है, लेकिन रमज़ान के महीने में यह इस पर काबू पा लेती हैं. घर की औरतों पर काम का बोझ और भी बढ़ जाता है. कॉलेज गोइंग गर्ल्स भी बिजी शैड्यूल होने के बावजूद रोजा रखना मुनासिब समझती हैं.

जामिया में पढ़ने वाली राशिदा फातिमा बताती हैं कि रोज़ा रखना बहुत ज़्यादा मुश्किल नहीं होता. बस शुरू के दिनों में ही थोड़ी बहुत परेशानी होती है. बाद के दिनों में आदत सी बन जाती है. लेकिन इस बार थोड़ा मुश्किल सा लग रहा था, पर अब कोई समस्या नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि कैंटिन के पैसे बच जाते हैं. रोज़े के दिनों में कुरआन भी पढ़ती हूं जिसे रूहानी सकून मिलता है.

नाज़नीन का कहना है कि मेरे लिए इफ्तार और सेहरी दोनो काफी अमैजिंग है. इफ्तार बनाने में काफी मज़ा आता है. इफतार के बाद चाय तो बस…. इसके बाद पहला काम सोने का करती हूं क्योंकि दिन भर काम में मशरूफ जो रहते हैं.

खदीजा बताती है कि वह सेहरी खाने के बाद सुबह के दस-ग्यारह बजे तक सोई रहती हैं. उसके बाद आफिस में आकर बिजी हो जाती हैं. वह बताती है रोजे से उनके काम पर कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि कुछ ज्यादा ही काम हो जाता है. क्योंकि इन दिनों खाने-पीन की टेंशन जो नहीं होती.

एम.सी.ए की सिदरतुल मुन्तहा का पूरा दिन कालेज के कामों में ही बिजी रहता है. हालांकि इस महीने वह नमाज़ पर ज्यादा ध्यान देती है और वैसे भी काम इन्हें करना होता नहीं है. हॉस्टल में बना बनाया इफ़्तार जो मिल जाता है.

जामिया में ही इंजीनियंरिंग कर रही सदफ खुर्शीद कहती हैं कि इन दिनों हमारी दिनचर्या काफी हैक्टिक हो गई है. काम इतना ज़्यादा बढ़ गया है कि भूख का ध्यान ही नहीं रहता.

जेएनयू की पल्लवी का कहना है कि रमज़ान के रोजों को मैं भी रखना चाहती हूं, ताकि मैं यह महसूस कर सकू कि उन लोगों के दिन कैसे कटते होंगे, जिन्हे दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती है. असम के बाढ़-पीडि़तो की क्या दशा होगी, इसका एहसास हमें करने की ज़रूरत है.

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