अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines
नजीब को ग़ायब हुए दो साल गुज़र गए. लेकिन बड़े-बड़े मामलों को चुटकी में ख़त्म कर देने का दावा करने वाली सीबीआई भी इस केस की परतें खोल पाने में पूरी तरह से नाकाम साबित रही. और आज ये केस पूरी तरह से बंद कर दिया गया. पुलिस-प्रशासन व सीबीआई की नाकामी का दर्द नजीब की मां के चेहरे पर खून के आंसू की शक्ल में जम गया है.
इस मां के आंसू को मैंने कई जगहों पर देखा है. मैंने ही क्या बल्कि पूरे देश ने इस मां को फूट-फूटकर रोते भी देखा है. जेएनयू के तक़रीबन हर छात्र ने अपने बेटे को पाने की गुहार के दर्द को बख़ूबी महसूस किया है. बेरहम व निकम्मी दिल्ली पुलिस ने इस मां के साथ जो कुछ किया वो भी पूरी दुनिया देख चुकी है.
मैंने देखा कि कैसे यह मां हर रोज़, हर वक़्त अपने बेटे नजीब की सलामती के लिए दुआ करती है. ये मां कभी पूरी रात जागकर और हर दिन बेटे की तकलीफ़ों को दिल में लिए कभी पुलिस स्टेशन व सीबीआई दफ़्तर के चक्कर लगाकर काटती रही तो कभी अपनी मांग की ख़ातिर सड़कों पर बैठी रही. ये मां हर बच्चे से पूछती है कि मेरा नजीब वापस आ जाएगा ना…
नजीब की मां फ़ातिमा नफ़ीस अपने गुमशुदा बेटे की तलाश में जब से दिल्ली आई हैं, तब से उनकी आंखों में आंसुओं का सैलाब है. जहां कहीं भी होती हैं, अचानक अपने बेटे नजीब को याद कर फ़फ़कते हुए रो पड़ती हैं.
मगर इन सबके बावजूद फ़ातिमा ना डरी हैं, न हटी हैं. भले वो रो रही हैं, लेकिन पूरी ताक़त से डटी हुई हैं. नजीब को ढूंढने के आंदोलन को मज़बूत बनाने के लिए वह हर चौखट पर दस्तक दे रही हैं. हर किसी से अपील कर रही हैं कि उन्हें और उनके बेटे के इंसाफ़ के लिए आगे आएं. सरकार और पुलिस पर दबाव बनाएं ताकि नजीब को ढूंढने का काम तेज़ किया जा सके और दोषियों पर कार्रवाई की पहल हो सके.
हद तो ये है कि दिल्ली पुलिस, क्राइम ब्रांच के अलावा सीबीआई भी नजीब को तलाशने में नाकाम रही. और अब तो अदालत ने भी केस बंद करने की अनुमति दे दी है. लेकिन ये मां अभी भी नाउम्मीद नहीं हुई है. इस मां को इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरा यक़ीन है और ये भी उम्मीद बरक़रार है कि उनका बेटा एक न एक दिन ज़रूर लौटकर आएगा और उसके दोषियों को पुलिस गिरफ़्तार करेगी.
ये सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि कई बड़े सियासतदां इस मां से मिलने के लिए आए. सबने इस मां को सांत्वना दी. कुछ ने अपनी राजनीति चमकाई, मगर इस मां का हर पड़ाव सिर्फ़ अपने बेटे की ख़ातिर रहा. इसके लबों पर बस एक ही सवाल रहा –मेरा बेटा कहां है? लेकिन इसके सवाल का जवाब कोई देने को तैयार नहीं है. वो सरकार जो ‘सबका साथ –सबका विकास’ की बात करती है, वो भी इस सवाल पर ख़ामोश है.
बेशर्मी की हद तो देखिए कि इनकी सियासत में किस क़दर नफ़रत हावी है कि इस पार्टी की एक भी नामचीन महिला राजनेता इस मां का दर्द बांटने नहीं आईं, क्योंकि नजीब उनका बेटा नहीं, उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता या फिर नजीब की मां उनके धर्म से नहीं…
जब से नजीब ग़ायब हुआ है, इस मां के हलक से निवाला नहीं उतरता. ये मां बस अपने बेटे की याद में ज़िन्दा रहने की क़वायद में मर-मर कर जी रही है. मेरा दिल तो यही कह रहा है कि इस मां के सब्र का बांध अब जवाब देने लगा है. मुझे डर इस बात का है कि नजीब कुछ और दिन में नहीं लौटा तो इस मां की ज़िन्दगी और उम्मीद दोनों ही ख़तरे में पड़ सकती है.
लेकिन नफ़रत की सियासत करने वालों को इससे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है. उन्हें तो बस सत्ता चाहिए. ये कितना अजीब है कि जेएनयू से लेकर राजपथ की सड़कों तक नजीब के नाम पर सियासत का खून जम चुका है, मगर नजीब की मां के आंसू किसी को नज़र नहीं आ रहे हैं. और जिन्हें इस मां का दर्द व आंसू नज़र आ रहा है, उन्हें सरकार के इशारे पर हमारी दिल्ली पुलिस हर तरह से दबा देना चाहती है.
इन तमाम सियासत से बेख़र फ़ातिमा नफ़ीस पिछले दो सालों से सिर्फ़ अपने लख़्ते-जिगर नजीब के इंतज़ार में भटक रही हैं. वो कहती हैं कि, ‘मुझे किसी भी सियासत में कोई दिलचस्पी नहीं. मुझे बस मेरा नजीब चाहिए. जो सीबीआई बड़े-बड़े मामलों को चुटकी में हल कर देती है, वो मेरे नजीब को क्यों नहीं ढ़ूंढ़कर ला रही है. आख़िर सीबीआई अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से पीछे क्यों हट रही है?’
उनका यह भी स्पष्ट तौर पर कहना है कि, ‘बेशक मेरा बेटा सबके लिए ‘एक था नजीब’ हो, लेकिन मेरी तलाश की जंग जारी रहेगी. मैं अपने बेटे को तलाश कर दुनिया के सामने लाकर रहूंगी.’
उत्तर प्रदेश के बदायूं का रहने वाला नजीब जेएनयू का होनहार छात्र था और एक मां ने अपने इस बेटे की सलामती और तरक़्क़ी के हज़ार सपने संजोए हुए हैं. बस किसी तरह बेटा वापस आ जाए और उनके सपनों व अरमानों को पंख लग सके…