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उर्दू अख़बारों का ये सच जानकर आप हैरान हो जाएंगे!

By Dr Zafarul-Islam Khan

उर्दू मीडिया में फेक न्यूज़ और पेड न्यूज़ का ख़ूब ज़िक्र होता है, जैसे उर्दू अख़बार दूध के धुले हैं और सिर्फ़ अंग्रेज़ी व हिन्दी अख़बार ही इस बीमारी से पीड़ित हैं. हिन्दी अख़बारों के बारे में तो मैं नहीं जानता, लेकिन अंग्रेज़ी अख़बारों की तुलना में हक़ीक़त ये है कि उर्दू के अख़बार इस मर्ज़ में ज़्यादा मुब्तला हैं. इसकी मिसालें हर रोज़ हमें देखने को मिलती रहती हैं.

शनिवार (18 मई) को इसकी एक बड़ी मिसाल एक बड़े कारपोरेट अख़बार ने पेश की कि एक ही संस्करण में लगातार पहले, तीसरे और पांचवे पन्ने पर बड़े शीर्षक के साथ बड़ी-बड़ी ख़बरों से ये धारणा बनाने की कोशिश की गई कि ममता बनर्जी देश की अगली प्रधानमंत्री होंगी. हमें इससे कोई मतलब नहीं कि अगला प्रधानमंत्री कौन हो या न हो, लेकिन इस तरह की ग़ैर-ज़रूरी बनावटी रिपोर्टिंग से ज़रूर मालूम होता है कि दाल में कुछ काला है.      

हमदर्द के मालिकों की लड़ाई की वजह से ‘रूह अफ़ज़ा’ के बाज़ार से ग़ायब होने पर एक अनजान यूनानी इदारे के शर्बत का विज्ञापन ख़ूब उर्दू अख़बारों में देखा गया और जल्द ही ये सिलसिला कम्पनी के मालिक के साथ इंटरव्यू में बदल गया जो हर उर्दू अख़बार में नज़र आ रहे हैं. स्पष्ट है कि ये पेड न्यूज़ है लेकिन अंग्रेज़ी अख़बारों के विपरित ये एहतियात भी नहीं की गई कि किसी कोने में ‘एडवोटोरियल’ छोटे अक्षरों में लिख दिया गया होता. 

उर्दू अख़बारों की गिरावट की हद है कि वो अमेरिकी, इज़रायली और कुछ अरब दूतावास से जारी किए गए लेख व ख़बरों को प्रकाशित करने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं. यहां एक उर्दू अख़बार ईरान के साथ खड़ा है तो दूसरा सऊदी अरब और यूएई के साथ. ये भी पेड न्यूज़ ही की एक शक्ल है. 

पिछले दिनों उर्दू अख़बारों में आरएसएस के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के बीजेपी के समर्थन में छपने वाले विज्ञापन भी देखने को मिले. हालांकि कोई भी आत्म सम्मान रखने वाला एडिटर ऐसे विज्ञापनों को अपने अख़बार में जगह नहीं देगा. खुद को इस्लामी तहरीक से क़रीब दिखाने वाले एक अख़बार ने तो हद ही कर दी कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का फुल पेज का विज्ञापन अख़बार के आख़िरी पन्ने पर प्रकाशित कर दिया. एक दूसरा अख़बार इस हद तक गिर गया कि उसने अपने पहले पन्ने पर इस विज्ञापन के कंटेंट को ख़बर की शक्ल दे दी. अगर ये चलन आम हो गया तो वो दिन दूर नहीं कि उर्दू पाठक इन अख़बारों को खरीदना बंद कर देंगे. आख़िर विज्ञापन पढ़ने के लिए कौन अख़बार खरीदेगा. ऐसे विज्ञापन वाले अख़बार तो पश्चिमी देशों में मुफ़्त बंटते हैं…    

(लेखक दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हैं. उनका ये विचार उर्दू में था, BeyondHeadlines ने अपने पाठकों के लिए इसका अनुवाद हिन्दी में किया है.)

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