Yogesh Garg for BeyondHeadlines
आज 2 अक्टूबर… एक ऐसे ‘अध-नंगे फकीर’ का जन्म दिवस… जो 30 जनवरी 1948 की तारिख़ तक भी वैसे ही थे, जैसे सदा से रहे थे. अर्थात एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न संपत्ति, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण योग्यता और न कलात्मक प्रतिभा…
मोहन से महात्मा और फिर बापू से राष्ट्रपिता के संबोधन उन्हें क्रमशः अपने पिता, गुरुदेव टेगौर, बारदोली की महिलाओं और सुभाष बोस से मिलें. एक साधारण से दिखने वाले, दुबले-पतले, सूत-चश्मा-लाठी-लंगोट धारी मानव की महामानव हो जाने की यात्रा अत्यंत ही साधारण-यात्रा थी. क्योंकि ये देश के लाखों-लाख लोगों की स्वयं की यात्रा थी .
‘सत्य के प्रयोग’ के पक्षधर गाँधी के कुछ ख़ास तत्व थे – चरखा, खादी, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय भाषा, अन्न-उत्पादन, हरिजन उद्धार, भारत की स्वाधिनता और विश्व-शांति… और इन तत्वों का प्रैक्टिकल करने के लिए उनके औज़ार थे -अहिंसा, सत्याग्रह, उपवास, मौन और अनशन…
गांधी जनता की उर्जा को देश की प्रयोगशाला में झोंकने वाले इकलौते जन-नायक थे; और इसीलिये उनकी सफलता या असफलता जनता की ख़ुद की सफलता या असफलता थी.
उनका विशेष गुण उनके अपने ही शब्दों में यही था कि वे सहज वृत्ति से यह जान लेते थे कि लोगों के हृदय को क्या मथ रहा है और जो चीज़ पहले से मौजूद रहती थी. उनको एक आकार देते थे… आज जबकि देश पुनः ऐसे किसी जन-नायक की बाट जोह रहा है. उसे याद रखना चाहिए कि आंदोलन की अनुकूल स्थितियां सदैव ‘अच्छाई की ताकतों’ पर निर्भर करती हैं. अगर समाज में किसी प्रकार की स्वस्थ भावना के चिह्न न दिखाई दें तो कोई भी जन-नायक इंतजार के सिवा कुछ नहीं कर सकता…
गांधी स्वयं 1947 तक आते-आते इसी असहजता की धुँध से घिरे थे. वे विभाजन से आहत थे और इसे एक ‘आध्यात्मिक दुर्घटना’ मानते थे. गांधी यहाँ तक तैयार थे कि अँग्रेज “भारत को उपद्रव तथा अराजगता के भरोसे ही छोड़कर चले जाए. कुछ समय हमें आग से गुज़रना होगा, परन्तु यह आग हमें शुद्ध कर देगी.” किन्तु ‘एक दृष्टिहीन व्यक्ति अँधेरे में निहायत अकेले टटोलते हुए’ प्रकाश की किसी किरण तक पहुंचता, तब तक राजनीति इंतजार नहीं करती…