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पत्रकारिता के दोगलेपन की आंखों देखी कहानी… एक सीनियर पत्रकार की ज़ुबानी…

Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines

उस दिन की दोपहर मैं आईबीएन 7 के दफ्तर के बाहर ही था, जब एक एक करके करीब 365 या उससे भी अधिक लोगों को आईबीएन नेटवर्क से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. चैनल के अंबानी के हाथों में चले जाने के बावजूद बेहद ही मोटी सैलरी लेकर चैनल का खूंटा पकड़कर जमे हुए उस वक्त के क्रांतिकारी मैनेजिंग एडिटर खुद अपने कर कमलों से इस काम को अंजाम दे रहे थे.

एक-एक को लिफाफे पकड़ाए जा रहे थे. मैं उस वक्त उज्जवल गांगुली से मिलने वहां गया था. आईबीएन-7 के कैमरामैन उज्जवल गांगुली उर्फ दादा उर्फ ददवा मेरे बेहद ही अज़ीज़ मित्र हैं और वो भी उस लिस्ट में शामिल थे, जो उस वक्त अंबानी के चैनल में शीर्ष पर बैठी क्रांतिकारियों की पौध ने अपने हाथों से तैयार की थी और जिसमें बेहद कम सैलरी पर सुबह से लेकर रात तक चैनल के वास्ते खटने वाले “बेचारे” पत्रकारों की भीड़ थी.

अधिकतर वही निकाले वही गए जिनकी सैलरी कम थी, जो किसी मैनेजिंग एडिटर के “लॉयल” नहीं थे, जो चाटुकार नहीं थे, जो काम के अलावा किसी दूसरे मजहब के अनुयायी नहीं थे. बाकी वामपंथ के नाम पर दिन रात भकर-भौं करने वाले, लाखों की सैलरी उठाकर, मंहगी गाड़ियों से आफिस पहुंचकर आफिस में सिर्फ बौद्धिक उल्टियां करने वाले, रात को वोदका पीकर और केंटुकी फ्राइड का चिकन भकोसकर सर्वहारा के नाम पर लगभग आत्महत्या की स्थिति तक व्यथित हो जाने वाले, हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बेटे अनुराग धूमल का अनंत प्रशस्ति गान करके, हिमाचल में शानदार होटल का लाइसेंस हथियाकर पत्रकारिता की दुकान सजाने वाले, सब के सब सुरक्षित थे. पूरा का पूरा “गैंग” सुरक्षित था.

अच्छा! ये भी अदभुत है. क्रांतिकारिता की नई फैक्ट्री खुली है ये. चैनल को अंबानी खरीद ले. कोई फर्क नहीं. मोटी सैलरी उठाते रहो. बिना काम के ऐश करते रहो. चैनल में केजरीवाल का बैंड अरसे से बज रहा हो. कोई फर्क नहीं. बिग एम की तरह बजते रहो, बजाते रहो. सत्ता के तलुवे चाटते रहो. चैनल पर मोदी गान हो रहा है. होने दो. चैनल से भोले भाले मासूम कर्मी लात मारकर निकाले जा रहे हैं. पियो वोदका… और वोदका पीकर रात के 2.30 से 3.00 के बीच में (जब पिशाब महसूस होने पर उठने का जी करे), तान लो मुठ्ठियां और कर दो मूत्र विसर्जन.

मगर जब निज़ाम बदल जाए और नए संपादक से मामला “सेट” न हो जाए और जब ये तय हो जाए कि अब कटनी तय है, तो उसी शाम एक मैसेज भेजो और खुद के क्रांतिकारी होने का मैग्नाकार्टा पेश कर दो.

दरअसल ये सब मनुष्य नही, बल्कि प्रवृत्तियां हैं. कुंठा के मानस पुत्र हैं ये. इलाहाबादी हूं, इसलिए जब भी कुछ लिखता हूं, दुष्यंत कुमार अपने आप सामने खड़े हो जाते हैं. दुष्यंत ने ऐसी ही कुंठित प्रवृत्तियों के बारे में ये कहते हुए आगाह किया है कि-

“ये कुंठा का पुत्र

अभागा, मंगलनाशक

इसे उठाकर जो पालेगा

इसके हित जो कष्ट सहेगा

बुरा करेगा

प्राप्त सत्य के लिए

महाभारत का जब जब युद्ध छिड़ेगा

ये कुंठा का पुत्र हमेशा

कौरव दल की ओर रहेगा

और लड़ेगा.”

अव्वल तो इस बात के ही खिलाफ हूं कि जब समय खुद ही इन कुंठा पुत्रों को इनकी नियति की ओर भेज ही रहा है, तो क्यों इस पर क़लम तोड़ी जाए. मगर कल से आज तक कथित बड़े पत्रकारों के बीच जिस तरह का विधवा विलाप देख रहा हूं, लगा कि ऐसे तो नहीं चलने वाला है. ऐसे रो रही हैं कार्पोरेट पत्रकारिता के पैसो से अपनी अंटी गरम करके बौद्धिक उल्टियां करने वाली ये अतृप्त आत्माएं मानो गयी रात ही इनका सुहाग उजड़ गया हो.

इस दौर में ये बहुत ज़रूरी है कि इस तरह के नकाबपोशों की पहचान हो. उसी कार्पोरेट पत्रकारिता के प्लेटफार्म से लाखों की सैलरी हर महीने उठाकर और कार में फुल एसी चलाकर दफ्तर पहुंचने वाली ये आत्माएं रात ढ़लते ही हाथों को रगड़ते हुए बहुत कुछ टटोलती नज़र आती हैं. बारी बारी से मंडी सज जाती हैं. पहले चैनल पर मोदी का करिश्मा बेचो, स्वच्छ भारत अभियान बेचो. अपने मालिक के स्वच्छ भारत अभियान के ब्रैंड एंबैसडर होने की खबर बेचो. हाथों को टटोलो और उसे रगड़ते हुए कार्पोरेट पत्रकारिता का हर खंबा बेच डालो.

और फिर रात ढलते ही, वोदका गटको और फिर शुरू हो जाओ. अबकी बारी फेसबुक पर आओ और गरीबों की भूख बेचो. विदर्भ के किसानों की आह बेचो. बुदेंलखंड के किसानो की आत्महत्या बेचो. आंसू बहाओ पत्रकारिता के पतन पर. रोओ कार्पोरेट पत्रकारिता के अंजाम पर. गरीबों, फटहालों की बदहाली की स्याही अपनी क़लम में उड़ेलकर उसकी कूची बनाओ और फिर अपनी बौद्धिक छवि चमकाओ. सेमिनारों में जाओ. पोस्टर लगाओ. क्रांतिकारी बनो और इंटरव्यू को भी क्रांतिकारी बनाओ. मुझे लगता नही कि पत्रकारिता के दोगलेपन का इससे बड़ा भी कोई उदाहरण होगा.

आज रो रही हैं ये सारी की सारी पत्रकारिता की भोथरी तलवारें. कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस छत के नीचे आप काम कर रहे हों, जिस छत के एकाउंट सेक्शन से लाखों की सैलरी लेकर अपनी जेब गर्म कर रहे हों, उस छत के बारे में राम जेठमलानी से लेकर सुब्रहमण्यम स्वामी तक सभी खुले मंच पर ब्लैक मनी के घालमेल की कहानी बयां कर रहे हैं. वो भी एक नहीं दर्जनो बार. मय सबूत समेत. यहां तक इस मामले की आंच पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम तक पहुंच चुकी है. मगर आरोपों में घिरी इसी छत से लाखों की सैलरी और छप्पर फाड़ सुविधाएं उठाकर शुचिता और शुद्धता की बात करने वालों का विधवा विलाप यहां से भी सुनाई दे रहा है. यहां भी आईबीएन में हुई इस घटना की बाबत चुप्पी तोड़ने और साथ देने की हुंकार भरी जा रही है. खुद अपने ही संस्थान से कितने लोग और कितनी ही बार बिना किसी कसूर के छंटनी के नाम पर निकाल दिए गए, मगर ये बौद्धिक आत्माएं जोंक की तरह अपनी कुर्सी से चिपकी रहीं.

मालूम पड़ा कि उस दौरान सांस की रफ्तार भी थोड़ी धीमी कर दी थी कि कहीं सांस की आवाज को लोग आह समझ बैठें और नौकरी पर खतरा आ जाए. यहां भी ग्रेटर कैलाश की सड़कों पर सरपट रफ्तार से बड़ी कार दौड़ाते हुए फेसबुक पर गरीबों का दर्द शरीर से मवाद की तरह बह निकलता है. ये सबकी सब दोगली आत्माएं ऐसा लगता है कि जैसे धर्मवीर भारती के अंधायुग के अश्वात्थामा से प्रेरित हों—

अंधा युग में अश्वत्थामा कहता है.

“मैं यह तुम्हारा अश्वत्थामा

कायर अश्वत्थामा

शेष हूँ अभी तक

जैसे रोगी मुर्दे के

मुख में शेष रहता है

गन्दा कफ

बासी थूक

शेष हूँ अभी तक मैं…”

वक्त बहुत निर्मम होता है. उसे आप अपने बौद्धिक आतंकवाद का शिकार नहीं बना सकते. वो जब पहचान लिखता है तो अश्वत्थामा की तरह से ही लिखता है. दरअसल, ये सुविधाभोगी वामपंथियों की पौध है, जिनका ईमान इस तरह फुसफुसा और लिसलिसा है कि एक बार इनकी नौकरी पर आंच आने की नौबत हो, और अगर चरणों पर लोटने से भी रास्ता निकल जाए तो उसके लिए भी तैयार रहेंगे, ये भाई लोग. और जब सारे ही रास्ते बंद हो जाएं तो एकाएक इनके भीतर का क्रांतिकारी सांप फन काढ़कर खड़ा हो जाएगा, मुठ्ठियां तानने की धमकियां देता हुए, हाथ रगड़ रगड़कर हवा में अपने ही चरित्र के वजन को टटोलता हुआ, ग्रेटर कैलाश की सड़कों पर कार के भीतर फुल एसी की मस्ती या फिर ब्लोअर के मस्ताने टंपरेचर में गुलाम अली को सुनते हुए, सोशल मीडिया पर रोता हुआ, गरीबों की आह महसूस करता हुआ.

अगर इन कथित क्रांतिकारी पत्रकारों को दिसंबर-जनवरी की बस एक रात के लिए भारी कोहरे और नम ज़मीन के चारों और तने मुज़फ्फरनगर के दंगापीडि़तों या फिर कश्मीर के सैलाब पीड़ितों के एक चादर वाले फटे-चिथड़े टेंट में छोड़ दो, तो उसी रात इन्हें उल्टी और दस्त दोनों एक साथ हो जाएगा. इन्हें मुज़फ्फरनगर के दंगा पीड़ितों के दर्द की बाबत भी फेसबुक पर क़लम तोड़ने से पहले फुल स्पीड का ब्लोअर, रम के कुछ पैग और बंद गले का ओवरकोट चाहिए होगा, क्योंकि उसके बगैर तो उंगलियों से लेकर संवेदना तक सभी कुछ जम जाएगा. खालिस बर्फ की तरह…

आईबीएन-7 के स्टेट करेस्पांडेंट रहे और अपने बेहद अज़ीज़ गुरू सत्यवीर सिंह जो खुद इसी छंटनी का शिकार हुए थे, ने उसी दिन मुझे रात में फोन करके बोला था कि गुरु देखो आशुतोष ने अंबानी का बूट पहनकर हम सबके पेट पर लात मार दी. सत्यवीर सर, आज मैं कह रहा हूं कि ये वक्त है. वक्त… ये पूरा का पूरा 360 डिग्री का राउंड लेता है. ये एक चक्की है गुरू. चक्की… पिंसेगे तो सारे ही. कोई कल पिस गया. कोई आज पिस रहा है, और किसी की बारी आने ही वाली है.

दरअसल आज तो इनकी बात का दिन ही नहीं है. आज तो बात होनी चाहिए उन 365 कर्मचारियों की जो मोटी सैलरी पाकर बॉस की चाटुकारिता करने वाली इन्हीं कुंठित ताकतों की भेंट चढ़ गए. इनको इनकी नौकरी वापस होनी चाहिए. ये वे लोग हैं जो 15 हजार से लेकर 30 हजार महीने की सैलरी पर अपने परिवार का पेट पालते हैं. कुछ इससे भी कम पाते थे. बहुतों के बच्चों का स्कूल छिन गया. बहुतों के घर टूट गए. बहुत आज की तारीख में फ्रीलांसिंस करके दर दर की ठोकरें खा रहे हैं. ये सब एक बड़ी कार्पोरेट साजिश की भेंट चढ़ गए और जिनके साजिशकर्ता आज एमपी से लेकर एमएलए बनने की जुगत में उन्हीं कार्पोरेट ताक़तों को गरिया रहे हैं जिनकी रोटी खाकर अपने खून का रंग लाल से नीला कर लिया है. पर इनकी बात तो आज होती ही नहीं है.

सुमित अवस्थी, अगर कचरा साफ करने की इस प्रक्रिया से जो धनराशि बचे, उससे कुछ ऐसे ही मेहतनकश मगर अभागे (अभागे इसलिए क्योंकि ये किसी मैनेजिंग एडिटर के नजदीकी नहीं हो सके) लोगों को आप नौकरी दे सकोगे तो इतिहास और भी बेहतर शक्ल में याद रखेगा आपको. वेल डन सुमित अवस्थी! ये तो नैचुरल जस्टिस हुआ न! पोएटिक जस्टिस है ये तो! ये तो एक दिन होना ही था. अच्छा हुआ, ये आपके कर कमलों से हुआ. इतिहास याद रखेगा आपके इस योगदान को.

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