हम सब वाक़ई बेहद इमोशनल किरदार हैं. एक झटके में हत्थे से उखड़ जाते हैं. दयाशंकर और मायावती… गाली गलौच… इनकी बेटी… उनकी बहन… ये सब क्या है?
दयाशंकर सिंह को मैं पिछले 9 सालों से जानता हूं. इतना ही वक्त हो गया मायावती की राजनीति से वाक़िफ़ हुए. साल 2007 में आईबीएन 7 चैनल में. यूपी का ब्यूरो संभालते हुए…. इन दोनों ही किरदारों से अच्छी तरह पाला पड़ चुका है.
दयाशंकर सिंह का जो भी आपराधिक रिकार्ड हो. वे इतने मूर्ख कतई नहीं हैं कि कैमरे के आगे गाली दें. वो भी किसी राष्ट्रीय नेता की सेक्स वर्कर से तुलना कर देना! ऐसा भी नहीं कि पहली बार कोई पद संभाला है, जो तजुर्बा न हो.
प्रदेश भाजपा में महामंत्री रह चुके हैं. भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय मंत्री. फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का जिम्मा संभाला है. शातिर दिमाग़ हैं. राजनाथ सिंह से खुलमखुल्ला भिड़कर भी. बीजेपी में आगे ही बढ़े. अचानक क्या हो गया उन्हें? और क्यों हो गया?
वहीं मायावती भी. सदन में बक-झक लेने. संसद के भीतर ही दयाशंकर सिंह की बहन-बेटी को खींच लेने. सारी भड़ास निकाल लेने. दयाशंकर सिंह को बीजेपी से निकाल दिए जाने. उनके खिलाफ़ तत्काल एफ़आईआर दर्ज हो जाने. इस सबके बावजूद भी. आखिर क्यूं यूपी के शहर-शहर… गांव-गांव… दंगल काटती नज़र आ रही हैं.
असली कहानी तो यहां शुरू होती है. ये है बड़ी सावधानी से लिखी गई स्क्रिप्ट. बीजेपी बनाम बीएसपी. नतीजा देखिए. नए चेहरों के साथ उठा कांग्रेस का गुबार. थम सा गया है. अब कोई चर्चा ही नहीं. सपा परेशान है. अपना विकास का राग किसको सुनाए. अब कौन सुन रहा है?
राजनीति की पटकथा एकदम साफ़ है. सौ मीटर की दौड़ में. दो धावक… सीटी बजने के पहले ही आगे निकल चुके हैं. ये राजनीति का ट्रैक है. यहां फॉउल नहीं गिने जाते.