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क्या इस कहानी में कुछ नया है? या लड़कियां ऐसे ही मरती हैं

गोपालगंज से लौटकर राजीव कुमार झा  

बिहार  के  गोपालगंज जिले के भोरे गावं में एक विवाहिता और उसकी बेटी को जिंदा जला दिया गया. लेकिन इस कहानी में कुछ भी तो नया नहीं है. देश के कोने-कोने में लड़कियां इस तरह की मौत ही तो मर रही हैं. कुछ पैदा होने से पहले ही मार दी जाती हैं, कुछ परिवार की इज्जत के नाम पर और जो बच जाती हैं वो दहेज के लिए. तो फिर गोपालगंज की रीता की कहानी में नया क्या है? कुछ भी तो नहीं? उसे भी दहेज के लिए मारा गया, स्थानीय लोगों में किसी की बोलने की हिम्मत नहीं हुई, परिजनों ने शोर मचाया तो पुलिस जागी और अंत में पूरा मामला अखबार की सिंगल कॉलम खबर बन सका. न आमिर खान का  सत्यमेव जयते असर कर सका न करोड़ों फूंककर बनाए गए सरकार के विज्ञापन.

यह दहेज हत्या की शिकार हुई एक और लड़की की कहानी है. आपके दस मिनट लेने से पहले ही पूरी ईमानदारी से बता देते हैं कि इस कहानी में कुछ भी नया नहीं है. अंत तक पढ़कर आपको लगेगा इस तरह की खबरें तो आप सैंकड़ों बार पढ़ चुके हैं….

06 जून 2012 को रीता यादव को बिहार के गोपालगंज में उसकी तीन बेटियों के साथ जिंदा जला दिया गया. यूपी के कुशीनगर जिले के धरहरा गांव की रीता की शादी 6 साल पहले भोरे थाने के कोरेया गांव के टीमल यादव के बेटे शिवशंकर यादव के साथ हुई थी. शादी के बाद से ही रीता को दहेज के लिए ससुराल वालों द्वारा लगातार प्रताड़ित किया जाने लगा. अपनी जिंदगी को गाली और अपनी दुर्दशा को नियति मान बैठी रीता मार-पीट और गाली गलौज के बीच जीवन गुजारते हुए तीन बेटियों की मां बन गई. लेकिन अंत तक वो लड़की ही रही, इंसान होने का दर्जा उसे नहीं मिल सका.

मृतका रीता के भाई  हरिश्चंद्र ने घटना के सबसे शर्मनाक पहलू पर रोशनी डालते हुए कहा, ‘6 जून को टीमल यादव ने फोन करके मुझे बताया कि रीता की तबियत खराब है और वे लोग उसे ईलाज के लिए देवरिया ले जा रहें हैं. यह सुनते ही मैं बहन को देखने देवरिया पहुंचा, लेकिन वहां कोई नही मिला. फोन पर संपर्क किया तो पता चला कि रीता मर चुकी है. हम रीता की ससुराल का दृश्य देखकर अवाक रह गए. गांव के दुर्गा मंदिर के पास रीता यादव की लाश को जलाने का प्रयास किया जा रहा था. वहां रीता के ससुराल वाले नहीं थे. यह काम आनन फानन में वहां के कुछ स्थानीय नेता और आदमी कर रहे थे. हमने तुरंत पुलिस को घटना की जानकारी दी तो क्रियाक्रम कर रहे लोग फरार हो गए. ‘रीता के परिजनों ने उसके ससुरालियों के खिलाफ दहेज हत्या का मामला दर्ज करा दिया है.

ससुरालियों ने रीता का कत्ल कर दिया. इस घटना पर समाज के आक्रोश की जगह उसकी असलियत सामने आई. दहेज के लिए ससुरालियों ने रीता और उसकी बच्चियों को खामोशी की नींद सुलाया तो समाज के प्रबुद्ध नेताओं ने चुपचाप उसका अंतिम संस्कार करके मामले को रफा-दफा करने का प्रयास किया.

रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी। 7 या 8 जून के स्थानीय समाचार पत्रों पर नजर डालें (क्यूंकि यह घटना 6 जून की है) तो आप पायेंगे कि जिन कुछ पत्रों ने ये खबर छापी है, उससे यह लगता है कि वहां कोई महिला और उसकी तीन मासूम बेटियों को नहीं मारा गया बल्कि किसी जानवर की मौत हुई है. मीडिया इतनी संकीर्ण हो गई है कि उसे ब्रह्म्मेश्वर मुखिया….चिदम्बरम….और….लाखों की लागत से बने ट्वायलेट की खबरों के बीच रीता यादव जैसी निर्दोष स्त्रियों और उसकी मासूम बेटियों की चीत्कार नहीं सुनाई देती. शांघाई फिल्म के प्रोमोशन की तस्वीर की चकाचौंध में रीता और उसकी तीन मासूम बेटियों के करुण विलाप गुम हो गया.

यह घटना एक ऐसे समय में घटी है, जब  आमिर खान अपने टीवी शो ‘सत्यमेव जयते ‘ द्वारा कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रथा जैसे संवेदनशील मुद्दा उठा रहे हैं और ’बेटी बचाओ अभियान’ के लिए कपिल देव  जैसे  दिग्गज खिलाड़ी लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं.

ग्रामीण इलाकों में दहेज की भेंट चढ़ने वाली अकेली रीता हीं नहीं है. आए दिन इस तरह की घटनाएं हो रही हैं. और ये किसी एक ‘सत्यमेव जयते’ में सिमटने वाला नहीं. ऐसी घटनाओं का एक और दुखद पहलु यह है कि इन घटनाओं को स्थानीय मीडिया भी सामने नहीं ला पा रही है. कुछ पत्रकार मित्रों से मैंने जब इस बारे में पूछा तो उनका कहना था कि जब तक थाने में इस तरह की घटनाओं के लिए कोई एफ.आई .आर दर्ज नहीं होते हम उसकी खबर नहीं छापते…..इसमें फंसने का डर होता है.

हम चाहे जिनते आधुनिक, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक देश या राज्य होने का दावा कर ले, चाहे जितने मॉल बना लें या ए.टी.एम मशीनें खड़ी कर लें, भारत या बिहार के गांव आज भी पुरानी गलाघोंटू प्रथा से नहीं उबर पाए हैं. दहेज लेना और देना आज भी सामाजिक स्टेटस का पैमाना माना जाता है.

जमीनी हकीकत के आगे सरकार के तमाम कायदे कानून बेबस साबित हो रहे हैं. आज भी हर दिन कोई न कोई रीता यादव दहेज की भेंट चढ जाती है, लेकिन अफसर, पच और नेता मिलकर मामलों को रफा-दफा कर देते हैं. पीड़ितों को इंसाफ दिलवाने के बजाए आरोपी पक्ष से वसूली करना पुलिस की प्राथमिकता हो जाती है. जिन मामलों में लक्ष्मी की उगाही होने की संभावना कम होती है उनमें ही एफ.आई.आर. दर्ज हो पाती हैं. समाज की उदासीनता का आलम यह है कि एक युवा महिला को तीन बच्चियों समेत जला कर मार दिए जाने की शर्मनाक घटना सिंगल कॉलम खबर बनकर रह जाती है.

हमारे जिस समाज में नारी को दुर्गा का रूप दिया गया उसी में दुर्गा मंदिर के पास ही एक बेबस महिला और उसकी तीन बच्चियों की कहानी का गुमनाम अंत करने का प्रयास किया जाता है.

यदि हम अब नहीं बदलेंगे, सरकार अब नहीं सोचेगी, सख्ती से पालन किया जा सकने वाला क़ानून अगर अब नहीं बनेगा, तो कब बनेगा?  लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ कानून बनाकर ही सबकुछ हो जाएगा. अगर सिर्फ कानून से ही सबकुछ हो जाता तो आज रीता यादव और उसकी तीन मासूम बेटियां जिंदा होती है. कानून बनाने से ज्यादा जरूरत उनके सख्ती से पालन करने की है.

रीता की कहानी तो खत्म हो गई… हां इसमें कुछ भी नया नहीं है. हालात भी पुराने हैं, सवाल भी पुराना है लेकिन अब हमें जवाब नया तलाश करना होगा. जवाब क्या हो सकता है ये आप नीचे कमेंट बॉक्स में बता दीजिए… शायद कोई और लड़की रीता न बने…

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बिहार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता  में शोध छात्र हैं, उनसे cinerajeev@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.) 

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