इस्लामी कैलेण्डर का नव-वर्ष ‘मुहर्रम’ के महीने से शुरू होता है. लेकिन इसे सेलिब्रेट करने का अंदाज़ कुछ जुदा है. इस अवसर पर विश्व के सारे मुसलमान चाहे वह शिया हो या सुन्नी, अपने रंज व ग़म का इज़हार करते हैं. दरअसल यह रंज व ग़म का इज़हार इमाम हुसैन की शहादत की याद में किया जाता है, जिसने न सिर्फ अपने जान-ए-अज़ीज़ की कुर्बानी दी, बल्कि अपने कुंबे के लोगों तक को कटवा दिया.
हम सभी जानते हैं कि किसी शख्स की मज़लूमाना शहादत पर उसके अहले खानदान का और उस खानदान से मुहब्बत व अक़ीदत या हमदर्दी रखने वालों का इज़हारे-ग़म करना तो एक फितरी बात है. ऐसा रंज व ग़म दुनिया के हर खानदान और इससे संबंध रखने वाले की तरफ़ से ज़ाहिर होता है, इसकी अखलाकी क़दर व क़ीमत इससे ज़्यादा नहीं है कि उस शख्स की ज़ात के साथ उसके रिश्तेदारों और खानदान के हमदर्दों की मुहब्बत एक फितरी तक़ाज़ा है.
लेकिन सवाल यह है कि इमाम हुसैन (रजि.) की क्या विशेषता है, जिसकी वज़ह से लगभग चौदह सौ साल गुज़र जाने के बाद भी हर साल इनका ग़म ताज़ा होता रहता है? अगर यह शहादत किसी मक़सद-ए-अज़ीम के लिए न थी तो महज़ जाति मुहब्बत की बिना पर सदियों इसका ग़म जारी रहने का कोई मतलब ही नहीं है. खुद इमाम की अपनी जाति व शख्सी मुहब्बत की क्या क़दर व क़ीमत हो सकती है? उन्हें अगर अपनी ज़ात उस मक़सद से ज़्यादा अज़ीज़ होती तो इसे कुर्बान ही क्यों करते? उनकी यह कुर्बानी तो खुद इस बात का सबूत है कि वो इस मक़सद को जान से बढ़ कर अज़ीज़ रखते थे. आज यही बात मुसलमानों को समझने की ज़रूरत है, चाहे वो शिया हो या सुन्नी या फिर किसी और फिरके के… हमें यह समझना ही होगा कि हक़ की लड़ाई में हमें सब कुछ भूलकर एक साथ चलना होगा. जब तक हम अलग-अलग खानों व फिरकों में बंटे रहेंगे, तब तक न तो अपना भला कर पाएंगे और न ही क़ौम व देश का ही भला कर पाएंगे. और हम कब तक अपने पिछड़ेपन का ‘मातम’ करते रहेंगे. ‘मातम’ तो मुर्दा क़ौम की निशानी है…
इस्लामी साल का यह मुबारक महीना ‘मुहर्रम’ कई अर्थों में दूसरे महीनों से अफ़ज़ल है. बहुत से अहम घटनाएं भी इस ऐतिहासिक दिन से वाबस्ता हैं :
- हज़रत नूह इसी दिन किश्ती से ‘कोहे-जोदी’ पर उतरे तो उन्होंने अल्लाह का शुक्र अदा करने की ग़र्ज़ से खुद भी रोज़ा रखा और अपने साथियों को भी रोज़ा रखने का आदेश फरमाया.
- अल्लाह ने हज़रत आदम और हज़रत यूनुस के शहर के बाशिंदों की तौबा इसी रोज़ कबूल फरमाई.
- हज़रत मूसा और आपकी क़ौम को फिरऑन के ज़ालिमाना पंजे से इसी दिन रिहाई मिली और फिरऑन समुन्दर में डूब कर मर गया.
- हज़रत ईसा की पैदाईश इसी दिन हुई और उन्हें आसमान पर इसी दिन उठाया गया.
- इसी रोज़ हज़रत यूसुफ को कुंवे से निकाला गया.
- हज़रत अयूब इसी रोज़ सेहतयाब हुए और उनका मशहूर मर्ज़ भी इसी दिन सदा के लिए खत्म हो गया.
- इसी दिन इदरीस को आसमान पर उठाया गया.
- हज़रत इब्राहिम इसी दिन दिन पैदा हुए.
- हज़रत सुलेमान को इसी दिन मुल्क बख्शा गया.
- और अंततः इसी दिन हज़रत इमाम हुसैन और आपके जान-निसार साथी हक़ की लड़ाई की लड़ाई में शहीद हुए. मशहूर सिख शायर कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी ‘सहर’ ने क्या खूब कहा है—
हक़ व बातिल दिखा दिया तुने
ज़िन्दा इस्लाम को किया तुने
जी के मरना तो सबको आता है
मर कर जीना सीखा दिया तुने!
