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पुरुष प्रधान समाज के यह महिला विरोधी फैसले

Tanveer Jafri for BeyondHeadlines

विभिन्न राजनैतिक, धार्मिक व सामाजिक मंचों से हालांकि प्राय: महिलाओं को लुभाने वाली इस प्रकार की भाषणबाज़ी सुनाई देती है कि महिलाओं को समाज में ‘देवी’ जैसा रुतबा व स्थान प्राप्त है. कभी महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी देने की बात भी की जाती है. भारत की राजनैतिक व्यवस्था में तो महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने की क़वायद भी दिखावे के लिए चल रही है. परंतु धरातल पर तो दरअसल कुछ और ही नज़ारे देखने को मिलते हैं.

उदाहरण के तौर पर औरतें मस्जिदों में नमाज़ अदा नहीं कर सकतीं, कई प्रमुख मंदिर भारत में ऐसे हैं जहां के क्षेत्र विशेष में महिलाओं के जाने पर प्रतिबंध है. भारत में हिंदू व मुस्लिम धर्म के कई समुदायों में औरतों का बारात के साथ यहां तक कि मृतक शरीर के साथ क़ब्रिस्तान या शमशान घाट में जाना मना है.

औरत भले ही अपने मां-बाप की इकलौती संतान क्यों न हो परंतु वह अपने मृतक माता-पिता को मुखाग्रि नहीं दे सकती. इस प्रकार की और न जाने कितनी ऐसी लक्ष्मण रेखाएं हैं जो महिलाओं के समक्ष खींची गई हैं.

विडंबना तो यह है कि उपरोक्त समस्त प्रतिबंध आज के उस दौर में भी देखने को मिल रहे हैं जबकि हम अत्यंत आधुनिक समाज व वातावरण में जीने का दावा कर रहे हैं. हम आज उस भयावह दौर से काफी दूर आ चके हैं जबकि हमारे देश में सती प्रथा का चलन था और अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा अपने स्वर्गीय पति की चिता पर बैठकर अपने प्राण भी त्याग दिया करती थी.

यहां तक कि एक विशेष समुदाय व क्षेत्र ऐसा भी था जहां बेटियों को पैदा होते ही केवल इसलिए मार दिया जाता था ताकि आगे चलकर कहीं उस कन्या के चलते परिवार के लोगों को अपना ‘सिर’ न झुकाना पड़े या ‘अपमानित’ न होना पड़े.

प्रश्र यह है कि क्या आज के आधुनिक व प्रगतिवादी युग में महिलाओं के साथ उस प्रकार का बर्ताव समाप्त हो चुका है? क्या अब हमारे देश की ‘दुर्गा’ व ‘देवी’ कही जाने वाली महिलाएं पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त कर रही हैं?  क्या उन्हें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कहीं भी आने-जाने या किसी धार्मिक समारोह या धार्मिक स्थल पर बेरोक-टोक आने-जाने की छूट है? क्या वे अपने धार्मिक व सामाजिक कार्यों, परंपराओं व रीति-रिवाजों में पुरुष के समान सहभागी होती दिखाई दे रही है? यहां तक कि क्या आज माता-पिता अपनी कन्याओं को भी अपने पुत्रों के समान शिक्षित कराने का प्रयास कर रहे हैं?

यदि इनकी गहराई से पड़ताल की जाए तो हमें यही दिखाई देता है कि दरअसल पुरुष प्रधान समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अपना नज़रिया आज भी काफी हद तक सौतेलेपन वाली ही रखा गया है. और यदि ऐसा न होता तो आज के दौर में जबकि देश में तीन अति महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएं आसीन हैं जिसमें स्वयं सत्तारूढ़ यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी भी हैं जिन्हें कि विश्व की चंद ताक़तवर महिलाओं में गिना जा चुका है. इसके अतिरिक्त लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज हैं. जबकि लोकसभा अध्यक्ष की जि़म्मेदारी मीरा कुमार निभा रही हैं.

आखिर क्या वजह है कि ऐसे अति महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं के होने के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक किसी न किसी बहाने का शिकार होते हुए संसद में पारित नहीं हो पा रहा है?

दरअसल इसका कारण देखने व सुनने में भले ही कुछ और हो परंतु हकीक़त तो यही है कि यह विधेयक पुरुष प्रधान समाज के राजनैतिक वर्चस्व का ही शिकार हैं.

अफ़सोस की बात तो यह है कि पुरुषों द्वारा महिलाओं को नियंत्रित करने हेतु अथवा इन पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक या सामाजिक प्रतिबंध लगाने हेतु धर्म या परंपराओं के नाम का भी सहारा लिया जाता है. कहीं इन्हें अपवित्र होने के संदेह में या उसकी आड़ में रोका जाता है तो कहीं इनके आधुनिक पहनावे को लेकर आपत्ति की जाती है. हमारे देश में कई प्रमुख तीर्थ स्थल ऐसे हैं जहां हमेशा से ही मर्द व औरतें समान रूप से दर्शन करने अथवा घूमने-फिरने आते-जाते रहे हैं. पंरतु अब धर्म के ठेकेदारों ने बैठे-बिठाए इनमें औरतों के प्रवेश के विरुद्ध ‘फतवा’ जारी कर दिया है.

मिसाल के तौर पर मुंबई के वर्ली कोस्ट पर समुद्र तट से लगभग 500 मीटर समुद्र के भीतर स्थित पंद्रहवीं शताब्दी के सूफी-संत पीर हाजी अली शाह बुखारी की दरगाह है. यहां दशकों से विदेशी सैलानी तथा तीर्थ यात्री बेरोक-टोक आते रहे हैं तथा हाजी अली की मज़ार पर जाकर अपना सिर झुकाते रहे हैं.

आस्थावानों के अनुसार यहां हर धर्म समुदाय तथा प्रत्येक लिंगभेद के लोगों द्वारा मांगी जाने वाली मुरादें भी पूरी होती हैं. दर्शनार्थियों को लेकर कभी किसी प्रकार का भेद-भाव इस दरगाह के पीर या दरगाह के प्रबंधकों की ओर से सुनने में भी नहीं आया. परंतु इन दिनों यही दरगाह एक महिला विरोधी फैसले को लेकर चर्चा का विषय बन गई है.

मुंबई के कुछ मौलवियों ने यह फ़तवा जारी किया है कि महिलाएं दरगाह में जाकर केवल दरगाह परिसर में घूम-फिर सकती हैं अथवा प्रार्थना कर सकती हैं. परंतु उनका मज़ार शरीफ़ के क़रीब जाना तथा उसके निकट लगी पवित्र जाली को पकडक़र प्रार्थना आदि करना प्रतिबंधित कर दिया गया है.

यह फैसला वर्ली स्थित पीर हाजी अली की प्रसिद्ध दरगाह के अतिरिक्त मुंबई की सात अन्य दरगाहों पर भी लागू किया गया है. दरगाह हाजी अली के ट्रस्टी हालांकि स्वयं इस फैसले पर अपने अलग-अलग बयान दे रहे हैं. परंतु शरियत कानून के नाम पर मौलवियों द्वारा लिए गए इस महिला विरोधी निर्णय का वह भी विरोध नहीं कर पा रहे हैं.

उदाहरण के तौर पर हाजी अली ट्रस्ट के कुछ सदस्यों का यह कहना है कि महिलाओं के शरीर पर पर्याप्त व उचित कपड़ों का सही ढंग से न होना ऐसे प्रतिबंध का मुख्य कारण है, जबकि कुछ ट्रस्टियों का स्पष्ट कहना है कि शरीयत कानून के तहत ही इस्लामी विद्वानों द्वारा दरगाह में महिलाओं के आने के विरुद्ध फतवे जारी किए जाते हैं.

कुछ मौलवियों का कहना है कि शरीयत कानून में महिलाओं के कब्र के पास जाने पर पाबंदी है तथा ऐसा करना गैर- इस्लामी होने के साथ-साथ पाप भी है. और इन्हीं बहानों की आड़ में क़रीब 6 माह पूर्व हाजी अली ट्रस्ट द्वारा महिलाओं को दरगाह में मज़ार के करीब जाने पर रोक दिया गया.

अब भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने इस फैसले का विरोध किए जाने का न सिर्फ फैसला किया है बल्कि ऐसे रूढ़ीवादी फ़तवों के विरुद्ध व्यापक जनसमर्थन जुटाने की भी कोशिश शुरु कर दी है. महिलाओं के इस संगठन को जहां अधिकतर महिलाओं का समर्थन प्राप्त है वहीं उदारवादी व आधुनिक सोच रखने वाला पुरुष समाज भी इनके साथ खड़ा दिखाई दे रहा है.

देश में चारों ओर से ऐसे हिटलरशाही रूपी फतवों के विरुद्ध आवाज़ें बुलंद होने लगी हैं. धर्म के ठेकेदारों तथा शरियत कानून के रखवालों से सवाल यह पूछा जा रहा है कि पंद्रहवीं शताब्दी के सूफी-संत पीर हाजी अली शाह की दरगाह पर शरियत कानून लागू किए जाने की ज़रूरत आज ही क्यों महसूस की गई? अभी तक उन्हें शरियत कानून की याद क्यों नहीं आई?

दूसरी बात यह कि यदि महिलाओं की अपवित्रता या उनकी आपत्तिजनक पोशाकें दरगाह के भीतरी हिस्से में प्रतिबंध का कारण हैं तो पवित्र रहने वाली महिलाएं तथा संपूर्ण वस्त्र पहनकर दरगाह परिसर में आने वाली महिलाएं ऐसे प्रतिबंध का शिकार क्यों?

इनसे एक सवाल यह भी है कि क्या दरगाह के भीतरी भाग अर्थात् मज़ार शरीफ़ तक जाने वाला प्रत्येक पुरुष पवित्र ही होता है? पवित्रता या अपवित्रता की सीमाओं का निर्धारण करने का या इसकी जांच-पड़ताल करने का अधिकार या तरीका आखिर किसके पास है? कोई शराबी भी अपवित्र हो सकता है तो पवित्रता के मानदंड न अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति अपवित्रता की श्रेणी में आ सकता है. फिर आखिर ऐसे तीर्थ यात्रियों या दर्शनार्थियों पर नज़र रखने के क्या उपाए हैं? केवल लिंग-भेद के आधार पर ही ऐसी लक्ष्मण रेखा खींचना क़तई मुनासिब नहीं है.

चाहे वह कोई मंदिर हो, मस्जिद, दरगाह, गुरुद्वारा, चर्च अथवा अन्य कोई भी पवित्र धर्म स्थल… इनकी पवित्रता का ध्यान रखना तथा उसे बरक़रार रखना सभी धर्म-जाति व लिंग-भेद के लोगों का अपना धर्म व कर्तव्य है. जो लोग यहां यह सोच-विचार लेकर आते हैं कि यहां आने से व यहां मन्नतें मांगने से उनकी मुरादें पूरी होंगी उसी वर्ग को ही स्वयं यह भी सोचना चाहिए कि अमुक धर्म स्थान की मर्यादाएं क्या हैं तथा हमें उनका किस प्रकार पालन करना चाहिए. और यदि कोई पुरुष या महिला उन मर्यादाओं का पालन नहीं करते तो यह समझा जाना चाहिए कि वे स्वयं ही अपने कर्मों के जि़म्मेदार हैं.

बजाए इसके कि किसी को रोककर या प्रतिबंधित कर या उसके विशेष क्षेत्रों में जाने पर पाबंदी लगाकर उसके ह्रदय व आत्मा को ठेस पहुंचाई जाए तथा अपने पुरुष प्रधान समाज की हेकड़ी को धार्मिक कानूनों की आड़ में बरक़रार रखने की निरर्थक कोशिश की जाए.

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