Ritu Choudhary for BeyondHeadlines
आजकल पूरे देश में एक जवलंत मुद्दा छाया हुआ है कि संघ की तरफ से देश का प्रधानमन्त्री पद का दावेदार कौन होगा? किसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए? आडवाणी या मोदी?
वैसे देखा जाये तो प्रधानमंत्री पद की कुछ गरिमा होती है. जैसे कि उस उम्मीदवार का कोई आपराधिक रिकॉर्ड न हो. उसकी एक साफ़-सुथरी छवि हो, लेकिन मुझे दोनों में ही बहुत कुछ कमियां दिखाई देती हैं.
खैर, आगे बात करने से पहले हम थोड़ा इस पार्टी के इतिहास के बारे में जान लेते हैं. 1924 में डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में विश्व हिन्दू संगठन की सथापना करने के लिए तथा हिन्दू राष्ट्र के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सथापना की. माधव राव मुले, बाला साहेब देवरस तथा तीन अन्य ने इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग प्रांतों में डेरा जमाया और बहुत मेहनत- मशक्कत करके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सथापना की.
इसी संस्था में आजादी से पहले प्रवेश पाने वालो में लाल कृष्ण आडवानी व अटल बिहारी वाजपेयी हैं. बाद में यह दोनों संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बने. वैसे तो संघ के सदस्य आम तौर पर अविवाहित ही रहते हैं, लेकिन आडवानी जी कुछ चालाक निकले. उन्होंने शादी कर ली!
1950 में आरएसएस की राजनीतिक शाखा के रूप में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की गयी और भारतीय मतदाताओं के सामने इसका विशुद्ध हिन्दू रूप प्रस्तुत किया गया. लेकिन धीरे-धीरे दूसरे धर्मावलम्बियों का समर्थन प्राप्त करने के लिए हिन्दुत्व की परिभाषा को विस्तृत किया जाने लगा.
अब अटल बिहारी वाजपयी तथा लालकृषण आडवानी जैसे कट्टर हिन्दू मुखर नेता खुद को धर्म-निरपेक्ष नेता के तौर पर प्रस्तुत करने लगे. लेकिन कुछ नेता इसके अपवाद रहे, जो कि अब ज्यादा सक्रिय हो गए हैं, जिसमें नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह तथा नरेन्द्र मोदी उल्लेखनीय हैं.
आज भारतीय जनता पार्टी का कट्टर हिंदूवादी हिस्सा नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर रहा है. जबकि लाल कृष्ण आडवाणी तथा सुषमा स्वराज पहले से ही इस पद के उमीदवार थे. भाजपा ने दोनों को ही हाशिये पर डाल दिया. अब किसी पुराने खिलाड़ी को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है. खैर, हक़ीक़त तो यह है कि इस मामले को लेकर भाजपा के अप्रत्यक्ष रूप से दो हिस्से हो चुके हैं.
दरअसल, मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार के रूप में पेश किये जाने पर आडवाणी जी बेहद ख़फा हैं. वो तब भी खफा हुए थे, जब अटल बिहारी वाजपयी को प्रधानमंत्री बनाया गया था. तब भी उनकी छवि एक कट्टर हिंदूवादी नेता की थी, तब सेक्यूलर छवि वाले अटल बिहारी वाजपयी को प्रधानमंत्री बनाया गया. उसके बाद उन्होंने रथयात्रा की और जम कर साम्प्रदायिकता फैलाई और खूब नरसंहार कराया.
मोदी ने जो नरसंहार गुजरात में कराया वो किसी से छुपा नहीं है. एक जनसमूह के तथाकथित हत्यारे को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देना तर्क संगत नहीं लगता. जातिवाद मोदी में कितना गहरा जड़ जमाये हुए है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो इंसान सम्मान में पहनाए जाने वाली टोपी स्वीकार्य से इंकार कर दे और वो भी सार्वजनिक मंच पर… फिर ज़रा सोचिए कि वो आदमी कितना साम्प्रदायिक सोच का होगा? लेकिन फिर भी भाजपा उन्हें भगवान से कम नहीं आंकती.
सच पूछे तो इसके पीछे भी कई कारण हैं. अहम कारण तो यह कि चूँकि मोदी व्यावसायिक बुद्धी के स्वामी हैं और खुद भी इसका बखान वो हर समय करते रहते हैं. कॉर्पोरेट वर्ल्ड के साथ इनके रिश्ते जगजाहिर हैं. और कॉर्पोरेट वर्ल्ड यह चाहता है कि मोदी प्रधानमंत्री बने. अगर मोदी प्रधान मंत्री बनते हैं तो भाजपा पार्टी तो पार्टी तो मालामाल होगी ही, कॉर्पोरेट घरानों को भी फायदा ही फायदा है. आम लोगों को जमकर लूटने का मौक़ा मिलेगा. और साथ ही दूसरा फायदा यह है कि भाजपा के नए नौसिखिए नेता भी सात पुश्तों के लिए पैसा जमा कर लेंगे. अब ऐसा मौक़ा कौन अपने हाथ से जाने देगा?
यह बात राजनाथ सिंह भी बखूबी समझ रहे हैं. यही वजह है कि राजनाथ सिंह ने लाल कृष्ण आडवाणी को एक सिरे से खारिज करके मोदी के सामने घुटने टेक दिए हैं. बाकी सब नेताओं को भी आगे लूट मचाने का भविष्य दिख रहा है. इसलिए सब हत्यारे मोदी को स्वच्छ नेता के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन शायद भूल रहे हैं कि मोदी के दामन पर लगे दाग़ इतने गहरे हैं कि शायद ही टाईड जैसा सर्फ भी उसे धूलकर लोगों को चौंका पाए. वैसे भी पब्लिक विज्ञापनों के पीछे के सच्चाई को जानने लगी है. वो भी इतनी आसानी से टोपी पहनने वाली नहीं है.
ज़रा सोचिए! भारत को सामंतो के हाथों से आज़ाद करने के लिए न जाने कितनों ने शहादत दी. हर धर्म, हर सम्प्रदाय के लोगों ने अपनी कुर्बानी यह सोच कर दिया था कि हमारी शहादत एक सेक्यूलर हिन्दुस्तान की सथापना करेगी. लेकिन हिन्दुस्तान को तो हमेशा ही नोच-नोच कर खाया गया है. पहले भ्रष्टाचारियों ने लूट-लूट कर खाया और खा रहे हैं. और अब पूरे देश को ही पूंजीपतियों के हाथों बेचने की तैयारी कर रही है हमारी भारतीय जनता पार्टी…
खैर, छोड़िए इन बातों को. मुद्दे की बात पर लौट कर आते हैं. पार्टी के दो हिस्से तो हो ही चुके हैं. ऐसे में एक टूटी हुई पार्टी के हाथ में देश की कमान देना कहा तक तर्क सांगत है? आडवणी हो या मोदी…. दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं. एक देश को साम्प्रदायिकता के हवाले कर देगा तो दूसरा खुद साम्प्रदायिकता तो फैलाएगा ही, साथ में देश को भी पूंजीपतियों के हाथों बेच देगा.
अब फैसला आपके हाथ में है कि आप क्या चाहते हैं? वैसे सच पूछे तो यही वक़्त है हमें अपने देश को एक सही दिशा में ले जाने और नए आयाम स्थापित करने का…