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मुज़फ्फरनगर दंगा : राजनैतिक महत्वाकांक्षा ज़िम्मेदार

Shandar Gufran for BeyondHeadlines

समझ में नहीं आता कि हम अपने आपको बड़े चौधरी चरण सिंह द्वारा बनाये गए जाट और मुस्लिम समुदाय के मज़बूत ऐतिहासिक, सामाजिक व राजनैतिक गठजोड़ का साक्षी कहें, जिसे टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन के रूप में अपने खून से सींचा या उस ऐतिहासिक समय का साक्षी कहें, जिसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ मसीहाओं और उनके वारिसों की राजनैतिक आत्महत्या और इस क्षेत्र के बदलते हुए भूगोल को देखने का दुर्भाग्य प्राप्त हो रहा है.

muzaffarnagar communal riotsवास्तव में मुज़फ्फरनगर में हुए तथाकथित सांप्रदायिक दंगे निश्चित रूप से हमारे कुछ राजनैतिक दलों की लाशों पर राजनीति करने की परंपरा और कुछ नेताओं की चुनावी लोलुपता के सिवाय कुछ भी नहीं. समाजवादी पार्टी और भाजपा के गोपनीय गठजोड़ में प्रायोजित इन तथाकथित दंगों ने न केवल राष्ट्रीय लोकदल और भारतीय किसान यूनियन के भविष्य पर ही एक सवालिया निशान लगा दिया है, बल्कि जाट और मुस्लिम समुदाय के बीच संदेह की ऐसी दीवार खडी कर दी है जिसका गिराया जाना दोनों समुदायों के लिए समय की तात्कालिक आवश्यकता है.

दंगो के कारण जान माल की हानि और देहात क्षेत्रों से होने वाला एक समुदाय विशेष का पलायन केवल एक क्षणिक आवेश में आकर भयाक्रांत समुदाय का ही पलायन नहीं है, बल्कि ये बड़े चौधरी के आदर्शों और एक किसान के तौर पर दोनों समुदायों की सामाजिक राजनैतिक आवश्यकतायों और समस्याओं को लेकर बनी और आज तक चली आ रही भारतीय किसान यूनियन की बुनियाद से होने वाले पलायन के तौर पर भी इतिहास में दर्ज होगा.

वास्तव में इन दंगो की बुनियाद में एक समुदाय विशेष की राजनैतिक हताशा को ज़िम्मेदार माना जा सकता है, जिसे समझने के लिए हमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से मुज़फ्फरनगर के राजनैतिक इतिहास को खंगालना होगा.

पिछले कुछ चुनावों में लोकदल के रूप में जाट और मुस्लिम समुदायों के गठजोड़ की बदौलत चुनाव जीतकर सांसद बने अमीर आलम हो या मुनव्वर हसन हों, राज्यसभा में सांसद के तौर पर मदनी या फिर विधान परिषद् में विधायक के तौर पर मुश्ताक़ चौधरी के रूप में एक वर्ग विशेष का ही दबदबा रहा और पिछली बसपा सरकार के पांच वर्षों के पूर्ण कार्यकाल एवं वर्तमान सपा सरकार के डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में दूसरा वर्ग, अजीत सिंह द्वारा केंद्र में भागेदारी एवं अनुराधा चौधरी द्वारा सपा का दमन थाम लेने के बाद अपनी खोई हुई राजनैतिक पहचान को दोबारा प्राप्त करने की जद्दोजहद में जाने अनजाने भाजपा की सांप्रदायिक छवि और बड़े चौधरी के आदर्शों व किसान मसीहा महेंद्र सिंह टिकैत की बुनियाद के बीच सामंजस्य नहीं बिठा पाया, जिसके पीछे टिकैत परिवार के वारिसों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी कम ज़िम्मेदार नहीं है.

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