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वजूद की लड़ाई लड़ते किशनगंज के चाय-किसान

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

किशनगंज (बिहार) : असम व दार्जिलिंग की चाय का नाम तो आपने ख़ूब सुना होगा. मगर इस बार यहां बिहार की चाय का ज़िक्र है. बिहार के किशनगंज के बाग़ानों की वो चाय जो गुमनामी के अंधेरों में सूख व बर्बाद हो रही है. न इस चाय का कोई ख़ास बाज़ार है और न ही सरकार की ओर से कोई सुविधा. चाय उगाने वाले इन किसानों को कई बार तो लागत मूल्य तक वसूल नहीं हो पाती है.

36 साल के फ़ख़रे आलम किशनगंज में 15 एकड़ ज़मीन पर अपने तीन भाईयों के साथ मिलकर चाय की खेती करते हैं. उनके परिवार में 7 लोग हैं. सब लोग खेती में लगे हुए हैं.

फ़ख़रे आलम का कहना है कि एक किलो ग्रीन लीफ़ उगाने में हम किसानों का लगभग 10 रूपये का खर्च आता है. लेकिन कई बार इसे 4 से 5 रूपये प्रति किलो के भाव पर बेचना पड़ता है. जून से सितम्बर तक पत्ते की उपज ज़्यादा होती है और टी प्रोसेसिंग यूनिट वाले जान-बूझकर रेट कम कर देते हैं. कई बार तो ऐसा हुआ है कि पत्तों को तोड़कर फेंकना पड़ा है.

उनके मुताबिक़ अगर यही हाल रहा तो किशनगंज के लोग चाय की खेती करना छोड़ देंगे. हालांकि वो बताते हैं कि अभी रेट थोड़ा सही है. एक किलो ग्रीन लीफ़ फिलहाल 13 से 14 रूपये के भाव में बिक रहा है.

फ़ख़रे आलम ने चाय की खेती की नुक़सान की भरपाई करने के लिए इसी बागान में तेज़पत्ते के दरख़्त भी लगा दिए हैं. उनके मुताबिक़ अब इससे साल में दो लाख रूपये तक की आमद हो जाती है, जिससे घर-परिवार अच्छे से चल जाता है. और इससे चाय की खेती को कोई नुक़सान नहीं है.

चाय-किसान मनोज कुमार लगभग 60 एकड़ में चाय की खेती करते हैं. उनका भी कहना है कि अब इस खेती में कुछ रह नहीं गया है, ‘सारी मेहनत हम करते हैं और मुनाफ़ा चाय बनाने वाले और बेचने वाले वाले कमा रहे हैं.’

पोठिया ब्लॉक के चाय किसान रामलाल सिंह व लखन सिंह का कहना है कि कई बार हमें अपने पत्ते को कौड़ियों के भाव में बेचना पड़ता है. इसके अलावा प्रकृति की मार भी हम किसानों पर ही पड़ती है. मौसम की बेरु़खी और प्राकृतिक विपदा के कारण भारी नुक़सान भी उठाना पड़ जाता है. कई बार बाढ़ की वजह से चाय के खेत पानी में डूब जाते हैं और चाय के पौधे गल जाते हैं.

कोचाधामन विधानसभा के पूर्व विधायक व वर्तमान में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमिन के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख़्तरूल ईमान का परिवार भी लगभग 23 एकड़ ज़मीन में चाय की खेती करता है.

अख़्तरूल ईमान बताते हैं कि किशनगंज में पहले ज़्यादातर ज़मीनें बंजर पड़ी थी. 1990 में ये बात सामने आई कि यहां चाय की खेती की जा सकती है. लेकिन इसकी सूचना यहां के आम लोगों में नहीं थी. इसके विपरित तुरंत यहां की ज़मीनें मारवाड़ी व बंगाली समुदाय के बड़े बनिया लोगों ने औने-पौने दामों में ख़रीद ली.

यानी हम कह सकते हैं कि 1990 के बाद सरकार के ऐलान के साथ ही यहां पर ज़मीन खरीदने व बेचने का धंधा शुरू हो गया. कई बड़ी मछलियां इस कारोबार में कूद पड़ीं. इसके बावजूद अभी भी कुछ किसान ऐसे हैं, जो अपनी छोटी-सी ज़मीन पर भी जी-जान के साथ चाय की खेती में लगे हुए हैं.

विधायक अख़्तरूल ईमान बताते हैं, ‘सरकार में रहते हुए मैं खुद बिहार सरकार को इस तरफ़ ध्यान दिला चुका हूं. लेकिन इस सरकार ने अब तक कुछ भी नहीं किया. हां, तक़रीबन 10 साल पहले सरकार ने पोठीया ब्लॉक में एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाने का ऐलान किया ज़रूर था, लेकिन अगले दस सालों तक सरकार नहीं लगा पाई. यानी हम कह सकते हैं कि एक ख़्वाब देखा गया था कि यह यहां के छोटे चाय-किसानों का कोऑपरेटिव सोसाईटी होगा, यहां सिर्फ़ उन्हीं का पत्ता लिया जाएगा, इससे जो मुनाफ़ा होगा वो इन्हीं चाय किसानों में बांट दिया जाएगा, जिससे इनकी ज़िन्दगी बदलेगी, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. सरकार ने उसे एक प्राईवेट कम्पनी को सौंप दिया है, जो इन छोटे किसानों का भला कम नुक़सान अधिक कर रही है.’

असल में तो ये किसान सिर्फ़ चाय उगाने की दशकों पुरानी परंपरा को जीते आ रहे हैं. मगर सही देख-रेख व सरकारी मदद के अभाव में ये परंपरा भी संकट के घेरे में है. जो व्यापारी इन चाय उगाने वाले किसानो से माल खरीदते हैं, वे इनकी मजबूरी का फ़ायदा उठाना बख़ूबी जानते हैं. ऐसे में व्यापारियों को तो मुनाफ़ा हो जाता है, लेकिन किसानों तक इस फ़ायदे का अंश काफी कम मात्रा में पहुंचता है. नीतिश सरकार भी इस मसले पर पूरी तरह से बेपरवाह नज़र आ रही है.

बताते चलें कि किशनगंज ज़िले के पोठीया ब्लॉक इलाक़े में भारत सरकार के स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोज़गार योजना के अंतर्गत 20 जनवरी, 2004 को टी प्रोसेसिंग व पैकेजिंग यूनिट का शिलान्यास तो हुआ, 2006 में निर्माण कार्य भी पूरा कर लिया गया. इस निर्माण कार्य में घोटाले की भी कई ख़बरें यहां के अख़बारों में प्रकाशित हुई. लेकिन इसका उदघाटन कभी न हो सका. किसानो के लिए ये यूनिट सपना बनकर रह गई. हां, इतना ज़रूर है कि पूरे 11 सालों के बाद राज्य की नीतिश सरकार ने 10 अगस्त 2015 को इसे ‘संचेती टी कम्पनी’ नाम के एक प्राइवेट कम्पनी के हाथों सौंप दिया है. ये कम्पनी भी मनमानी और मुनाफ़े के कारोबार में जुट गई है. लेकिन किशनगंज के छोटे किसान वहीं के वहीं रह गए हैं, उन्हें कोई फ़ायदा नहीं मिल सका है.

इस पत्रकार ने इस कम्पनी का भी दौरा किया. यहां हमारी मुलाक़ात इस कम्पनी के मैनेजर एस.पी. मुखर्जी से हुई.

मुख़र्जी बताते हैं कि यह कम्पनी सिलीगुड़ी की है. इसके मालिक अमीम बैध हैं. इनकी एक ‘अपेक्स’ नामक कम्पनी किशनगंज शहर में है. हमारे मालिक ने यह फैक्ट्री सरकार से लीज पर ली है.

किसानों की समस्याओं पर बात करने पर मुखर्जी इसे झूठ का पुलिंदा बताते हैं और कहते हैं, ‘सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा ये चाय-किसान व नीलामी के बाद हमारी चाय खरीदने वाले व्यापारी कमाते हैं.’

वो बताते हैं कि हम किसानों से ग्रीन-लीफ़ 12-13 रूपये में लेते हैं, जबकि उनकी पैदावार का खर्च मात्र 8 रूपये है.

आगे वो बताते हैं कि एक किलो चाय बनाने के लिए 4.52 से लेकर 5 किलो तक ग्रीन-लीफ़ का इस्तेमाल होता है. यहीं बिजली की समस्या होने के कारण पैदावार की हमारी लागत 12-14 रूपये बढ़ जाती है. ये लागत 35-40 रूपये के आस-पास बैठती है. इस तरह से एक किलो चाय बनाने में हमारा 90 रूपये खर्च होता है. और नीलामी में 90 से 110 रूपये के भाव के बीच ही बिक पाता है.

यहां यह भी बताते चलें कि किशनगंज की यही चाय किशनगंज के बाज़ार में भी आम लोगों को 240 रुपये प्रति किलो के भाव से कम में नहीं मिलती है.

किसानों के ग्रीन-लीफ़ की कीमतें कौन तय करता है?

किसानों से पत्ते लेने के दौरान रेट कौन तय करता है? क्या ‘टी बोर्ड ऑफ इंडिया’ का इसमें कोई दखल होता है? इसके जवाब में संचेती टी कम्पनी के मैनेजर एस.पी. मुखर्जी का कहना है, ‘रेट चाय कम्पनियां ही तय करती हैं. और रेट ज़रूरत के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है.’

जम्हूरियत की तरह चाय की खेती भी बुरे हालत में

यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ बंगाल से टी-मैनेजमेंट की पढ़ाई कर चुके अली हशमत रेहान बताते हैं कि आज से 20 साल पहले किसानों को ग्रीन-लीफ़ की क़ीमत 18 रूपये तक मिलती थी. लेकिन जम्हूरियत की तरह चाय की खेती भी बुरे हालात में पहुंच रही है. चाय की क्वालिटी घट रही है, इसलिए कीमतें घटती जा रही हैं.

वो बताते हैं कि टी बोर्ड ऑफ इंडिया ने क़ायदे-क़ानून तो खूब बना रखे हैं. बल्कि उनके अधिकारी भी किशनगंज में बहाल हैं. लेकिन यह सारे नियम-क़ानून काग़ज़ों पर हैं. हक़ीक़त में इनके अधिकारी किसानों के लिए कुछ भी करते हैं.

रेहान बताते हैं कि किशनगंज में तक़रीबन एक हज़ार छोटे-बड़े चाय किसान हैं, जिसमें मुश्किल से 300 चाय-किसान मुसलमान हैं, जबकि किशनगंज मुस्लिमबहुल जिला है. और इन 300 किसानों में कोई भी बड़े किसानों की गिनती में नहीं आता.

रेहान के मुताबिक़ पूरे किशनगंज में आठ से नौ टी प्रोसेसिंग कम्पनियां हैं और इन कम्पनियों को एक किलो चाय तैयार करने में अधिकतम 60-70 रूपये का खर्च आता है और ये चाय नीलामी में 120-200 रूपये तक बिकती है.

बताते चलें कि बिहार के किशनगंज ज़िले में कुल सात ब्लॉक हैं. इनमें से सिर्फ़ तीन ब्लॉक यानी पोठिया, ठाकुरगंज व किशनगंज में ही चाय की खेती होती है. यानी पूरे बिहार में सिर्फ़ यही तीन ब्लॉक हैं, जहां चाय की खेती होती है. हालांकि एक ख़बर के मुताबिक़ अब कटिहार में भी चाय की खेती होने लगी है. कटिहार के बलरामपुर प्रखण्ड के डेकही गांव के किसानों ने बड़े पैमाने पर चाय की खेती की शुरुआत की है.

किशनगंज के इन तीनों ब्लॉक के किसान उन तमाम सरकारी वादों का रोना रो रहे हैं, जो सरकार ने चाय की खेती बढ़ाने के ख़ातिर किए थे. आलम ये है कि कोई इनकी सुनवाई तक करने को तैयार नहीं है. आज की तारीख़ में ये किसान रोज़ी-रोटी के मोहताज होने लगे हैं. अगर इनकी सही समय पर मदद नहीं की गई तो ये हालात चिंताजनक हो सकती है.

यह चाय नहीं, ज़हर है

अली हशमत रेहान बताते हैं कि हम भारत के आम लोग चाय के बजाए ज़हर ही ज़्यादा पी रहे हैं.

वो बताते हैं कि देश के तमाम चाय-बगानों में कीटनाशक दवाओं का छिड़काव ग़लत तरीक़े से किया जा रहा है. कई बार मैंने देखा कि कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया गया और अगले दिन ही उस पत्ते को तोड़ लिया जाता है. हद तो यह है कि मोनो क्रोटोफस जैसी कई कीटनाशक दवाएं जो दुनिया के तमाम देशों में प्रतिबंधित है, वो यहां के चाय बग़ानों में धड़ल्ले में छिड़का जा रहा है.

रेहान बताते हैं कि चाय बनाने का एक तरीक़ा होता है. लेकिन हमारे देश में ज़्यादातर इसे फॉलो नहीं करते. आप देखेंगे कि होटलों में दिन भर एक ही चाय पकती रहती है. एक ही चाय पत्ती को कई बार इस्तेमाल कर लिया जाता है. यह ग़लत है. ये चाय कम ज़हर अधिक है. बहुत देर तक उबालना बहुत ख़तरनाक है. इससे पेट के हाज़मा व ब्लड प्रेशर संबंधित कई बीमारियां हो सकती हैं.

भारत सबसे ख़राब चाय बनाने वाले देशों में शुमार

रेहान बताते हैं कि आज भारत दुनिया की सबसे ख़राब चाय बनाने वाले देशों में शुमार होने लगा है. चाय किसानों में चाय को लेकर जागरूकता नहीं है. सस्ते में चक्कर में हम अच्छी चाय नहीं उगा पा रहे हैं. प्लकिंग यानी बाग़ान से लीफ़ तोड़ने का तरीक़ा सबसे अहम है, लेकिन ज़्यादातर किसान इस ओर खास ध्यान नहीं देते. पत्तों को तोड़कर कचड़े की तरह ट्रकों में भर दिया जाता है, जिसका प्रोसेसिंग यूनिट तक पहुंचते-पहुंचते कबाड़ा निकल चुका होता है. और हम कबाड़ चाय पी रहे हैं.

भारत बन सकता है सबसे बड़ा बाज़ार

अली हशमत रेहान का मानना है कि अगर टी-मैनेजमेंट पर थोड़ा ध्यान दिया जाए तो यहां बहुत अधिक संभावनाएं हैं. ग्रीन टी पीना फ़ायदामंद होता है. इसे प्रोमोट करने की ज़रूरत है.

रेहान बताते हैं कि आईआईटी गड़खपुर में एक प्रोजेक्ट के दौरान मैंने ‘इस्टीबिया टी’ बनाया है. इस चाय में चीनी मिलाने की ज़रूरत नहीं होती है. चाय का शौक़ रखने वाले डायबीटिक लोगों के लिए यह काफी फ़ायदेमंद हो सकता है. और अगर हम थोड़ा सा ध्यान दे दें तो भारत पूरी दुनिया में इस चाय के लिए एक बड़ा मार्केट बन सकता है. ये ‘इस्टीबिया टी’ दस हज़ार रूपये प्रति किलो से अधिक में बिक सकती है.

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