BeyondHeadlines News Desk
लखनऊ/कानपुर : रिहाई मंच ने मारे गए कथित आतंकी सैफुल्लाह के परिजनों से कानपुर में मुलाक़ात कर उसकी हत्या की न्यायिक जांच की मांग की है. इससे पहले दिन में आज एक बार फिर रिहाई मंच जांच दल ने लखनऊ के ठाकुरगंज स्थित कथित मुठभेड़ स्थल का दौरा कर स्थानीय लोगों से बातचीत की.
रिहाई मंच ने आज भी लोगों से बातचीत करके और संचार माध्यमों में छपी ख़बरों और पुलिस के दावों पर 15 नए सवाल उठाए हैं :-
1- मारे गए कथित आतंकी सैफुल्ला की गरदन पर ताजा ज़ख्म के निशान हैं. जो गले के नाजुक चमड़े़ पर रगड़ से पैदा हुए लगते हैं. जो तभी सम्भव हो सकता है जब सैफुल्ला के गले को किसी डोरी, रस्सी या नुकीली चीज़ से बलपूवर्क रगड़ा गया हो. यह तथ्य पुलिस के इस दावे पर सवाल उठाता है कि वह क्राॅस फायरिंग में गोली लगने से मरा है. क्योंकि अगर वह गोली से मरा था तो फिर ये जख्म के ताजा निशान कहां से आ गए हैं?
2- इसी तथ्य से जुड़ा दूसरा सवाल यह उठता है कि जब पुलिस के मुताबिक़ कमरे में सैफुल्ला अकेले छुपा था तो फिर किसके साथ संघर्ष के परिणामस्वरूप ज़ख्म के ये ताज़ा निशान उसके गले पर पड़े़ हैं? जाहिर है उस कमरे में सैफुल्ला के अलावा भी कुछ लोग थे. आखिर वे लोग कौन थे, पुलिस इस सवाल का जवाब क्यों नहीं दे रही है?
3- सैफुल्ला के साथ उसके मरने से पहले संघर्ष हुआ था इसका एक ठोस प्रमाण उसके शर्ट/कमीज़ के बायीं तरफ़ जहां अमूमन जेब होती है, उसका बेतरतीब तरीके से फटा होना भी है. जो किसी खरोंच नहीं, बल्कि जिस्म के उस हिस्से पर मारपीट करने के दौरान मज़बूत पकड़ या नोचने के कारण हुआ लगता है.
4- सैफुल्ला के गले में चिपकी हुई काले रंग की तीन डोरियां दिख रही हैं. ये डोरियां/रस्सीयां धागे की हैं या प्लास्टिक जैसी किसी चीज की यह कह पाना मुश्किल है. हो सकता है यह कोई तावीज हो. लेकिन अमूमन कोई एक से ज्यादा तावीज़ नहीं पहनता. लेकिन हो सकता है कि उसने तीन तावीजें पहनी हों. लेकिन सैफुल्ला के बारे में पुलिस का यह दावा कि वह आईएसआईएस से जुड़ा था, जिसे बाद में आईएसआईएस से स्वतः प्रेरित बताया जाने लगा, उनके तावीज होने की सम्भावना को एक सिरे से खारिज कर देता है, क्योंकि आईएसआईएस दरगाहों या तावीज की परम्परा को गैर-इस्लामिक मानता है और इसीलिए उसने पिछले दिनों पाकिस्तान में शाहबाज कलंदर की मजार पर भी हमला किया था. जाहिर है अगर वह सचमुच आईएसआईएस से जुड़ा होता या प्रेरित भी होता तो वह तावीज नहीं पहन सकता था, क्योंकि उसकी पूरी वैचारिकी ही मजार और तावीज के खिलाफ खड़ी होती. वहीं पुलिस का यह दावा जो कुछ अख़बारों में भी प्रकाशित हुआ है कि उनके निशाने पर देवा शरीफ़ की मजार जिसकी तस्वीरें कथित तौर पर बरामद लैपटाॅप में पाई गईं हैं, के साथ ही लखनऊ का इमामबाड़ा भी था, भी उनके तावीज़ होने की सम्भावना को खारिज करता है. क्योंकि शिया समुदाय जिसकी आस्था से इमामबाड़ा जुड़े हैं उनमें भी हाथों और गले में तावीज पहनने की परम्परा है. जाहिर है अगर उसके निशाने पर देवा शरीफ़ मजार और इमामबाड़ा होता तो उसके गले में तावीज नहीं हो सकती थी. ऐसे में इन्हें गले में फंसाई गई रस्सी के अलावा कुछ और मानने का कोई आधार नहीं बचता. इसकी सम्भावना इससे भी पुष्ट होती है कि ऊपरी डोरी के सामने वाले हिस्से का कुछ भाग लिपटा हुआ है जबकि अमूमन तावीज में ऐसा कुछ नहीं होता. या तो वह प्लेन धागा होता है या उसके अगले हिस्से में कोई बैज जैसी चीज बंधी होती है. इन तथ्यों की रोशनी में देखा जाए तो ये डोरियां तावीज के बजाए गले में लपेटी या बांधी गई रस्सीयां ज्यादा लगती हैं. सवाल उठता है कि आखिर इन रस्सीयों को किसने उसके गले में डाला या बांधा होगा? सवाल यह भी उठता है कि क्या इन रस्सियों के उसकी गरदन में फंसाकर उसके साथ की गई जोर ज़बरदस्ती और सैफुल्ला द्वारा उसके प्रतिकार के कारण ही उसके गले पर छिलने के निशान पड़े हैं? और क्या इसी वजह से गरदन को दबाने के क्रम में कंधे और सीने पर हमलावर के हाथों के अत्यधिक तेज़ पकड़ के कारण उसके शर्ट के बांए हिस्से जहां पर पाॅकेट होता है वह फट गया है? इसकी सम्भावना इससे भी बढ़ जाती है कि गले के जख्म के निशान और कपड़े का फटा हिस्सा न सिर्फ़ एक ही तरफ़ हैं बल्कि ठीक ऊपर नीचे भी हैं. जाहिर है, अगर यह सम्भावना सही है तो सवाल उठना लाज़मी है कि जिस कमरे को पुलिस अंदर से बंद होने और उसमें सिर्फ सैफुल्ला के होने का दावा कर रही है (जबकि शुरूआत में पुलिस ने एक से अधिक आतंकियों के अंदर होने की बात कही थी) उसमें उसके गले में रस्सी का फंदा डालने वाला कौन था, जिससे संघर्ष में उसके गले पर जख्म के निशान पड़ गए और उसका शर्ट फट गया? पुलिस ज़ख्म और कपड़े के फटने के सवाल पर क्यों कोई जवाब नहीं दे पा रही है?
5- क्या इससे यह साबित नहीं होता कि पुलिस ने अपनी मुसलमानों की स्टीरियोटाइप्ड आतंकी छवि के हिसाब से दावे किए और आईएसआईएस के दार्शनिक समझदारी के अभाव में एक बिल्कुल हास्यास्पद कहानी गढ़ दी. जिसका एक मक़सद हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिक माहौल बनाना था तो वहीं शिया-सुन्नी तनावों को लेकर संवेदनशील रहने वाले लखनऊ में मुसलमानों के बीच के अंतर-विरोधों को और बढ़ाना भी था?
6- इसी से जुड़ा सवाल यह भी बनता है कि क्या उसके कमरे के अंदर उसके अलावा भी किसी की मौजूदगी के दावे से पुलिस इसीलिए बाद में पलट गई है कि उसे इन जख्मों, गले में पड़े रस्सी के फंदे और फटे कपड़े पर कोई जवाब ही न देना पड़े? तो क्या सैफुल्ला के अलावा भी कोई कमरे में था जिसने या जिन्होंने पहले उसके साथ मारपीट की और फिर गोली से मार दिया? अगर ऐसा है तो वो कौन है, पुलिस उसे क्यों बचाना चाहती है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर इन सवालों का जवाब क्यों नहीं पुलिस दे रही है?
7- मारे गए कथित आतंकी के सर का दाहिना हिस्सा पूरी तरह से उड़ गया है। यहां तक कि उसके चीथड़े भी दाएं गाल और सर के पिछले हिस्से से निकल गए हैं। लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से चेहरे का बायां हिस्सा तुलनात्मक रूप से बिल्कुल ठीक स्थिति में है. यानी गोली या जिस भी चीज़ से उसे मारा गया वह बिल्कुल पीछे से मारा गया जिसके कारण उसके चहरे के सामने वाले हिस्से का मांस या तो दायीं तरफ बाहर निकला या फिर सर के पीछे के ऊपरी हिस्से से बाहर निकल गया. यानी गोली किसी भी स्थिति में पीछे से ही मारी गई है, कनपटी या गाल के दाईं या बाईं तरफ से नहीं मारी गई क्योंकि अगर ऐसा होता तो गोली दोनों गालों या दोनों कनपटियों को छेदते हुए बाहर निकल जाती. यहां यह जानना भी महत्पूर्ण होगा कि जिस तरह से चेहरे का आधा हिस्सा पूरी तरह से विकृत हो गया है और उसके मांस के लोथड़े बाहर की तरफ निकल गए हैं, ऐसा रायफल या एके-47 जैसे हथियार से और वो भी नज़दीक से मारे जाने पर ही सम्भव है. क्योंकि इनकी फायरिंग में विपरीत दिशा में गोली बस्र्ट करती हुई निकलती है जिससे मांस के लोथड़े बाहर निकल जाते हैं. यानी गोली उसे बहुत नज़दीक से और वो भी पीछे से मारी गई. सवाल उठता है कि अगर आप उसे इतने नज़दीक से गोली मारने की स्थिति में थे तो उसे पकड़ा भी जा सकता था या उसे जिंदा रखने और सिर्फ़ घायल करने के उद्देश्य से सर के हिस्से को निशाना बनाने से बचा जा सकता था, जो नहीं किया गया. आखिर इस आसान विकल्प को क्यों नहीं अपनाया गया जबकि पुलिस का लगातार दावा था कि उसे जिंदा पकड़ने की ही कोशिश की जा रही है?
8- इसी से जुड़ा तथ्य यह भी है कि उसे पीछे से गोली मारने का मतलब यह भी है कि वो किसी भी तरह से पुलिस पर क्राॅस फायर करने की स्थिति में नहीं था. क्योंकि पुलिस कर्मी उसके सामने नहीं थे. तब फिर आखिर उसके सम्भावित हमले की जद में नहीं होने के बावजूद उस पर पीछे से फायरिंग करके उसे क्यों मारा गया? उसे जिंदा पकड़ने की सम्भावना को क्यों खत्म कर दिया गया? क्या पुलिस जानबूझ कर उसे जिंदा नहीं पकड़ना चाहती थी?
9- एक दूसरी तस्वीर में एक दिवार में ऊपर नीचे दो बड़े छेद देखे जा सकते हैं। पुलिस के मुताबिक इन्हें ड्रिल मशीन से बनाया गया ताकि कमरे में छुपे आतंकी को देखा और मारा जा सके। लेकिन सवाल उठता है कि किसी खतरनाक आतंकी जिसके पास खतरनाक हथियार हों उसे पकड़ने के लिए दिवार के एक ही तरफ़ और वो भी ठीक ऊपर-नीचे छेद बनाने का क्या तुक है? इससे तो टारगेट यानी आतंकी छेद किए गए दिवार की तरफ ही सट कर अपने को छुपा सकता है. जाहिर है एटीएस जैसी किसी प्रशिक्षित फोर्स ही नहीं, गैर-प्रशिक्षित होमगार्ड्स से भी ऐसी मूर्खता की उम्मीद नहीं की जा सकती. जाहिर है एटीएस ने ऐसा इसलिए नहीं किया कि वो मूर्ख है या उनकी ट्रेनिंग में कोई कमी रह गई हो. बल्कि इसकी सम्भावन ज्यादा है कि उन्हें यह पता हो कि अंदर कोई जीवित व्यक्ति नहीं है और यह ड्रामा सिर्फ़ मुठभेड़ के वास्तविक प्रतीत होने के लिए किया गया हो.
10- इसी रोशनी में यह सवाल भी उठता है कि जब आतंकी को देखने के लिए भी छेद करना पड़ा, यानी ऐसी कोई खिड़की नहीं थी कि उसे देखा जा सके तो फिर उस पर गोलियां किस तरफ़ से चलाई जा रही थीं? पुलिस का यह दावा तो उसकी पूरी कहानी को ही मजाक बना दे रह है.
11- पुलिस के मुताबिक़ उसने सैफुल्ला के भाई खालिद की सैफुल्ला से फोन पर बात कराई. लेकिन पुलिस के इस दावे को रिहाई मंच से बातचीत में खालिद ने खारिज कर दिया. उन्होंने बताया कि किसी ने उन्हें फोन करके अपने को पुलिस अधिकारी बताया और कहा कि तुम अपने भाई को समझाओ हम तुम्हारी उससे बात करवाते हैं वो सरेंडर नहीं कर रहा है और शहादत देने की बात कर रहा है. जिसके बाद खालिद ने बदहवासी में अपने भाई से जोर-जोर से सरेंडर कर देने की बात करता रहा, लेकिन उधर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी जिसके बाद फोन कट गया. रिहाई मंच नेताओं के यह पूछने पर कि उसे अपने भाई की आवाज़ सुनाई दे रही थी तो उसने कहा कि भाई की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी, सिर्फ़ गोलियों की आवाज़ सुनाई दे रही थी. जाहिर है यह पूरा नाटक था. ना तो खालिद की अपने भाई से बात हुई और ना ही पुलिस की कहानी के मुताबिक़ ऐसा हो ही सकता था क्योंकि पुलिस पहले से ही दावा कर रही थी कि सैफुल्ला ने अपने को कमरे में बंद कर लिया है. यानी बात कराने का पूरा नाटक ही सैफुल्ला की हत्या कर देने की तैयारी के साथ हुई थी. इसीलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि लगभग 5 से साढ़े 5 बजे के बीच ही खालिद को पुलिस ने फोन करके सैफुल्ला से बात कराने का नाटक किया और स्थानीय लोगों के मुताबिक़ उसी समय सैफुल्ला की हत्या भी कर दी गई थी, जिसे पोस्टमाॅर्टम रिपोर्ट के हवाले से छपी ख़बरों में भी मौत का वक्त बताया गया है. जाहिर है ऐसा यह भ्रम तैयार करने के लिए किया गया कि पुलिस ने मारने से पहले सैफुल्ला को आत्मसमपर्ण करवाने का पूर प्रयास किया और उसके भाई ने भी उसे ‘आतकंवाद का रास्ता’ छोड़ देने का ‘देशभक्तिपूर्ण’ काम किया. लेकिन सैफुल्ला इतना ज्यादा कट्टर ‘जिहादी’ था कि उसने अपने भाई की भी बात नहीं मानी. इसी तर्क की आड़ में सैफुल्ला की हत्या करने का माहौल निर्मित करते हुए मीडिया पर यह ख़बर चलवाई गई कि सैफुल्ला ‘शहीद’ होना चाहता है. यानी उसकी हत्या के लिए खुद उसी को दोषी ठहराने का तर्क पहले ही गढ़ने की कोशिश की गई. अगर ऐसा नहीं था तो फिर इस झूठ को क्यों फैलाया गया कि सैफुल्ला से उसके भाई की बात हुई थी?
12- इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि पुलिस को सैफुल्ला के परिजनों का नम्बर कैसे मिला? आखिर बड़े-बड़े खुलासे करने वाली पुलिस इस सवाल पर चुप क्यों दिख रही है?
13- पुलिस ने लाउडस्पीकर पर सैफुल्ला के आत्मसमर्पण करने की बात कहने का दावा किया है. लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक़ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. सवाल उठता है कि तब पुलिस यह दावा क्यों कर रही है? क्या ऐसा करके वो इस कथित मुठभेड़ में हुई हत्या को विधिपूवर्क पूरा किए गए अपने कथित काउंटर अटैक का तार्किक परिणाम बताना चाहती है?
14- पुलिस का दावा है कि उसने सैफुल्ला को रात को तक़रीबन 3 से साढ़े 3 के बीच मार गिराया. लेकिन कई चैनलों पर उसके पौने दस बजे ही मारे जाने की खबरें चलने लगीं. यहां तक कि कई रिर्पोटों में तो पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में लाईव बताया गया कि अब थोडी देर में ही यहां से सैफुल्ला का शव निकाला जाएगा. आखिर ऐसा क्यूं हुआ? अगर यह ख़बर सही थी तो फिर मारे जाने का वक्त 3 से साढ़े 3 बजे रात के बीच का क्यों बताया गया और अगर यह गलत ख़बर थी तो उसका खंडन क्यों नहीं किया गया?
15- सैफुल्ला की पोस्टमाॅर्टम रिपोर्ट उसके पिता को नहीं मिली है लेकिन उसकी ख़बरें मीडिया में आने लगी हैं, जिसमें काफी अंतरविरोध हैं. मसलन भास्कर के मुताबिक़ उसे 11 गोलियां लगी हैं तो वहीं अमर उजाला के मुताबिक पीएम में चार गोलियों का दावा किया गया है. आखिर इतने संवेदनशील मुद्दे पर चलने वाली ऐसी अंतरविरोधी ख़बरों पर पुलिस चुप क्यों है? क्या ऐसा इस मुद्दे पर भ्रम और सनसनी की स्थिति बनाए रखने के लिए खुद पुलिस करवा रही है? अगर नहीं तो फिर पुलिस चुप क्यों है?