संगठित लूट पर सरकारी चादर है नई दवा नीति

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BeyondHeadlines News Desk

“राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को कैबिनेट से मंजूरी दिलाकर ज़रूरी दवाइयों को सस्ती करने का सरकारी फैसला ऊपर से देखने में बेहतर दिख रहा है पर सच्चाई यह है कि जिस नीति (बाजार आधारित नीति) के तहत दवाइयों के मूल्य तय किए जाने हैं वह नीति दवा कंपनियों की लूट को कानूनी जामा पहनाने जैसा है. क्योंकि इस नीति के तहत एक प्रतिशत शेयरधारी कंपनियों द्वारा तय की गयी एम.आर.पी के औसत मूल्य को सेलिंग प्राइस अथवा सरकारी रेट तय करने की बात की गयी है.”

यह बातें आज BeyondHeadlines से एक विशेष बातचीत में मुंबई से आए प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय संयोजक आशुतोष कुमार सिंह ने कही. आशुतोष दिल्ली में दवा नीति को लेकर होने वाले परिचर्चा में भाग लेने आए हैं.

उन्होंने आगे बताया कि कंपनियां अपनी लागत से 1000-3000 प्रतिशत ज्यादा एम.आर.पी तय करती रही हैं. जिसका पुख्ता प्रमाण समय-समय पर मीडिया देती रही है. ऐसे में इन कंपनियों द्वारा तय की गई एम.आर.पी का औसत बहुत ज्यादा राहत देता हुआ नज़र नहीं आ रहा है. उल्टे में जो कंपनियां सस्ती दामों पर दवाइयां बेच रही हैं वे भी इस औसत के चक्कर में अपना मूल्य बढा देंगी. सच कहे तो सरकार द्वारा 348 दवाइयों के मूल्य कंट्रोल करने की बात एक तरह से छलावा-सा लग रहा है. लोगों को भरमाने का प्रयास भर है. इस नीति को पढ़ने के बाद इतनी बात तो समझ में आ गयी है कि सरकार सच्चे मन से दवाइयों के दाम को कम नहीं करना चाहती. यह सोचनीय प्रश्न है जहां पर हजारों प्रतिशत में मुनाफा कमाया जा रहा हो वहां 10-20 प्रतिशत की कमी के क्या मायने हैं.

स्पष्ट रहे कि 348 दवाइयों के मूल्य निर्धारित करने व उनकी निगरानी करने की जिम्मेदारी नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथोरिटी को है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि आरटीआई के तहत BeyondHeadlines को मिली अहम जानकारी में इस प्राधीकरण ने कहा है कि उसे यह नहीं मालूम है कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं. ऐसे में एन.पी.पी.ए इन दवाइयों के दाम को किस आधार पर तय करेगी? इतना ही नहीं पिछले 14-15 सालों में एन.पी.पी.ए ने जिन दवा कंपनियों के खिलाफ़ ओवरचार्जिंग के मामले तय किए हैं उनके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई अभी तक नहीं हुई है. अकेले सिपला जैसी कंपनी पर कुल 2500 करोड़ दंड राशि में से लगभग 1600 करोड़ रूपये बकाया है. बावजूद इसके ये कंपनियां लगातार ज़रूरी दवाइयों की सरकारी रेट लिस्ट को ठेंगा दिखाते हुए अपनी मर्जी से दवाइयों के मूल्य तय कर रही हैं.

यही नहीं, देश के दवा दुकानदारों को यह नहीं मालूम है कि उन्हें ज़रूरी दवाइयों की रेट लिस्ट अपनी दुकान में रखनी आवश्यक है. एन.पी.पी.ए की वेबसाइट पर दवाइयों के प्रोडक्शन के डाटा उपलब्ध नहीं है. यानी कुल मिलाकर यह कहा जाए की हेल्थ को लेकर सरकार कागजी काम तो करती रही हैं लेकिन अभी तक धरातल पर कोई वास्तविक कार्य होता दिख नहीं रहा है.

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