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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > बटला हाउस ‘एन्काउंटर’ का आंखों देखा हाल…
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बटला हाउस ‘एन्काउंटर’ का आंखों देखा हाल…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 25, 2013 4 Views
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19 Min Read
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Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

Contents
‘शहीद’ एम.सी. शर्मा की ‘शहादत’ पर सवालिया निशानQuestions Galore on the Death of MC Sharma in Batla House EncounterPost Mortem Reports Raise Serious Questions on the Authenticity of the Batla House EncounterPanchatantra Was Found at Batla House Encounter Spot!Batla House Encounter: Many questions unansweredWhy Magisterial Probe into Batla Encounter Was Not Ordered..?The Irony of RTI in Batla House EncounterWhy Delhi Minority Commission Inquiry into Batla House Encounter Never Happened?Has Jamia Really Swallowed Funds for Batla Victims?19 सितम्बर 2008 का वो दिन…बटला हाउस हत्या के चार वर्ष: न्याय कब मिलेगा?बटला हाउस ‘इनकाउंटर’: चार साल गुज़र गए पर सवाल अब भी क़ायम हैमुसलमानों के दामन पर लगा वो दाग़…सरकार के दिल में चोर है…शुक्रिया! आगे मैं और नहीं लिख सकता…दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल का खोखला ‘सच’Four Years of Batla House Encounter, Why No Probe and No Justice?Death, Fear, Politics… Where is Justice?The Burden of Being MuslimThe Youth will Continue to be Fearful without the Judicial ProbeNo Probe will Lead to Loss of Faith in Democracy and Human RightsTruth of Batla House Fake Encounter Would Expose the Real Face of TerrorismMusings on the Fourth Anniversary of Batla House ‘Encounter’Batla House ‘Encounter’: Alarm Bells for Nation and CommunityJustice for ALLI Always Believed Batla House Encounter was Fake: Digvijay Singh   

19 सितम्बर, 2008 की सुबह…  एक सामान्य दिन…  काम करने वाले अपने-अपने दफ्तरों की तरफ़ जा रहे थे या जा चुके थे… छात्र-छात्राएं रोज़ की तरह अपने-अपने स्कूल या कॉलेज पहुंच चुके थे… और जो लोग घरों में थे वो रमज़ान के तीसरे जुमे की तैयारी कर रहे थे… मैं भी अपने कॉलेज में दोस्तों के साथ काम में मशगुल था। पर अचानक फ़ोन की घंटी घनघनाने लगती हैं… “अरे..! बटला हाउस में एनकाउंटर चल रहा है क्या..?” “यह मैं क्या सुन रहा हूँ..?” “अरे..! तुम्हारे इलाके में आतंकवादी रहते हैं…”

Batla House 'Encounter' witnessed ...इस तरह के बेशुमार सवालात लोग मुझसे फोन पर पूछने लगे. मैं कॉलेज से अपने दोस्त रेयाज साक़िब के साथ बटला हाउस की तरफ भागने लगा. पुलिस की सायरन के साथ-साथ फोन की घंटी भी बराबर बजती रहीं. लोगों का हुजूम मुझे भागता हुआ नज़र आता है. सब बदहवास हैं. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है. लोग हमें भी आगे बढ़ने से रोक रहे थे. उनका कहना था कि आगे पुलिस गोलियां चला रही है, उधर मत जाओ. लेकिन हम लोग आगे बढ़ते गए. हमें भी यह समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा है. हमारे ज़ेहन में तरह-तरह के ख्यालात आ रहे थे, क्योंकि ये वही रमज़ान का महीना था, जिसमें हर साल कुछ न कुछ हादसात होते रहे हैं. मैंने इसी महीने में अपने मौत को भी अपनी आंखों से देखा था. मुझे 22 सितम्बर, 2007 की वो शाम याद आ जाती है. जब मैं रोज़ की तरह इफ्तार के बाद ज़ाकिर नगर कुछ खाने व मार्केटिंग के मुड से निकला था. रात के आठ बजने को थे. मालूम हुआ कि इलाके में एक पुलिस वाले के ज़रिए कुरआन को फेंकने और उस पर लात मारने का मामला हुआ है. जिसकी वजह से लोग अपने घरों से निकलकर सड़को पर आने लगे हैं.

‘नारे-तकबीर! अल्लाहो अकबर’ की सदा गुंज उठती है. फिज़ा की कैफ़ियत बदल जाती है. भीड़ पागल हो चुकी थी. मैं आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूं. एक शख्स शफक़त भरे लहजे में कहता है – “ आगे मत बढ़ो, खतरा हो सकता है.” मैं खतरा मोलते हुए आगे बढ़ता जाता हूं. गोलियों की तड़तड़ाहट की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी. मैं वापस पीछे की ओर भागता हूं. भीड़ से हटने के बाद मैं खुद को आंसुओं में पाता हूं. आंखों से लगातार पानी गिर रहे हैं. मैं पीछे हटता जाता हूं, लेकिन आंसू गैस के गोले हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं…. आगे अभी भी भागो… भागो… ठहरो… ठहरो… नारे-तकबीर की सदा बुलंद हो रही है. पुलिस भीड़ पर काबू पाने में कामयाब हो गई. सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया. जिनमें से अभी भी कितने लोग जेलों के अंदर सड़ रहे हैं. हो सकता है कि शायद वो निर्दोष हों…

अब मेरे सामने एक भीड़ थी. मैं भीड़ से बहुत डरता हूं या यूं कहिए कि हालात ने मुझे डरना सिखा दिया था. और वैसे भी आतंकवाद की तरह ही भीड़ का कोई धर्म नहीं होता. भीड़ किस पल आक्रोशित होकर कब क्या कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता. और जब यही भीड़ उग्र रूप ले लेती हैं, तो उसे ‘दंगा’ नाम दे दिया जाता है. मैं इन्हीं ख्यालात में डुबा आगे बढ़ता रहा कि एका-एक फिर नारे-तकबीर की सदा कान में गुंजती है और लोग एक शख्स को घेरे हुए हैं और उसे समझाने के साथ-साथ हाथों का इस्तेमाल कर रहे हैं. मैं उस शख्स को देखने के लिए भीड़ को चीरता हुआ अंदर की तरफ बढ़ता हूं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा चेहरा मेरे सामने था जो अपने गलत रिपोर्टिंग से इस इलाके को बदनाम कर रहा था. लोग उसकी इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सके और उसकी पिटाई कर दी.

उसी वक़्त पुलिस की माईक से आवाज़ आती है. “सब लोग अपने-अपने घरों में चले जाएं… यहां पुलिस एनकाउंटर चल रहा है…” ये आवाज़ जानी पहचानी लग रही थी. सामने देखा तो इस इलाके के एम.एल.ए. साहब ये ऐलान कर रहे थे. लेकिन भीड़ पर इनकी बातों का कोई असर नहीं दिखा. बार-बार पुलिस सायरन की आवाज़ और नारे-तकबीर की सदा फ़िज़ा में गुंजती रही. लोगों की भीड़ पागल हो रही थी, लेकिन इनके चेहरे पर डर व भय साफ दिख रहा था. तभी दो लोग एक शख्स को कंधे के सहारे लेकर पैदल बाहर की तरफ आ रहे थे. एक पत्रकार के रिपोर्टिंग से मुझे मालुम हुआ कि यह इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा हैं. जिन्हें तुरंत होली फैमिली अस्पताल ले जाया जा रहा है.

अब पूरा इलाका पुलिस और मीडिया के कब्ज़े में था. मीडिया वालों को जो दिल में आया खुलकर बोला. यहां के लोग इनकी रिपोर्टिंग से हैरान व परेशान थे. एक अजीब तरह की दहशत सबके चेहरे पर साफ दिख रही थी.

बटला हाउस में पुलिस एनकाउंटर की ये कोई पहली घटना नहीं थी. इससे पहले भी यहाँ एक एनकाउंटर लालकिला कांड के आरोपी अबू सामल और उसके साथी के साथ 26 दिसंबर 2000 को हुआ था. दोनो आरोपी मारे गये. एनकांउटर में स्पेशल सेल की ड्रीम टीम काम कर रही थी. डीसीपी अशोक चांद, एसीपी राजबीर सिंह और इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा और उनके साथी इस एनकाउंटर में शामिल थे. लोगों ने इस एनकाउंटर को भी फर्ज़ी क़रार दिया था. लोगों को शक था कि ये मुठभेड़ फर्जी है और दोनों कश्मीरी लडकों को उठा कर मारा गया. वक्त के साथ यह बातें यादों की गर्त में चली गयी…

बटला हाउस दरअसल मुसलमानों का इलाक़ा है. बल्कि यूं कहिए कि पूरा जामिया नगर ही मुस्लिम बहुल इलाक़ा है. जाकिर नगर, बटला हाउस, जोगा बाई, ग़फ़्फ़ार मंज़िल, नूर नगर, ओखला गाँव, अबुल फ़ज़ल एनक्लेव और शाहीन बाग सभी इसी जामिया नगर में पड़ते हैं. इन इलाक़ों में अधिकतर लोग बेरोज़गारी के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हैं. 90 के दशक में जब देश में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की लहर तेज़ थी तब दिल्ली के कई हिंदू बहुल इलाक़ो को छोड़ मुसलमान इस इलाक़े में बसते चले गए. आज कुछ हद तक ओखला गाँव को छोड़कर सारा इलाक़ा मुसलमानों से भरा पड़ा है.

दूसरी तरफ़ इसी इलाक़े में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित है. इस विश्वविद्यालय के कारण ये सिर्फ़ मुस्लिम बहुल इलाक़े के तौर पर ही नहीं बल्कि ऐसे इलाक़े के तौर पर भी जाना जाता है जहाँ पढ़े-लिखे मुसलमान रहते हैं. हज़ारो की तादाद में छात्र भी यहाँ रहते हैं और वो समाज का एक अहम हिस्सा हैं. छात्र जामिया नगर के धार्मिक और राजनीतिक मामलों में भी काफ़ी सक्रिय भूमिका निभाते हैं. इस सबके साथ देश में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी हिंद इस्लामी फिकह अकादमी और जमात-ए-अहले हदीस हिन्द सहित अनेक मुस्लिम धार्मिक संगठनों के साथ-साथ अन्य ग़ैरसरकारी संगठनों के दफ़्तर भी यहीं हैं.

देश-दुनिया में कहीं कुछ हो, अगर उसका संबंध मुसलमानों से हो तो उस इलाक़े में उसके पक्ष या विपक्ष में आवाज़ें उठनी लाज़मी हैं. सद्दाम, मोदी, कार्टून विवाद, सभी चर्चा का गरमागरम विषय रहे हैं. मैंने देखा है कि इन भाषणों में ऐसी अनेक बातें खुल कर बोली जाती है जिन्हें हर जगह पर सार्वजनिक तौर पर बोलना आसान नहीं है. इनमें ‘हिन्दुत्व के प्रतीक’ लाल कृष्ण अडवाणी और बाल ठाकरे की कड़ी आलोचना शामिल है. हालाँकि वक्ताओं के अंदर का उबाल इन भाषणों में साफ़ ज़ाहिर होता है लेकिन आम लोगों का सरोकार इन सब बातों से कम ही होता है. एक बड़ी आबादी के बावजूद किसी भी जलसे जुलूस में हमने 200-300 से अधिक लोग नहीं देखे. एक बात मैं ज़रूर कहना चाहुंगा कि पिछले पाँच साल से इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदू छात्रों की संख्या बढ़ रही थी. लेकिन हमें उसी दिन से यह भय लगने लगा था कि कहीं इस पनपती साझा संस्कृति पर विराम न लग जाए, और शायद ऐसा हुआ भी…

मेरे मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. मैं यह सोच रहा था कि अगर यह एनकाउंटर सच में सही है तो फिर यह मेरी नज़र में यकीनन दिल्ली पुलिस की सबसे बड़ी कामयाबी है. क्यूंकि देश का हर नागरिक आतंकवाद व बम धमाकों की घटनाओं से परेशान हो चुका है. लेकिन दूसरी तरफ मुझे यह सवाल भी परेशान कर रहा था कि एक बहुत बड़ा वर्ग दिल्ली पुलिस के इस कामयाबी पर उनकी पीठ थपथपाने को तैयार क्यों नहीं है.

लोगों में काफ़ी रोष था और पुलिस लोगों को घटनास्थल से भगाने में जुटी हुई थी. इलाक़े में ख़ासा तनाव था, लेकिन लोग डरे और सहमे हुए थे. लोग इस एनकाउंटर पर अटकलें तो लगा रहे थे लेकिन अब आम लोगों की तरफ़ से कोई विरोध या नारेबाज़ी नहीं की जा रही थी. लोग एम.सी. शर्मा को भी लेकर भयभीत थे और मुझे कई लोग मिले जो उनके ठीक हो जाने के लिए दुआएं करते नज़र आएं.

टीवी के खबर के मुताबिक शाम पांच बजे तक इन्हें खतरे से बाहर बताया गया. लोगों ने चैन की सांस ली. लेकिन अचानक यह खबर आई कि एनकाउंटर में घायल हुए पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की होली फ़ैमिली अस्पताल में मृत्यु हो गई है. अब लोगों में दहशत देखने लायक था. पुलिस पूरी तरह इस पूरे इलाक़े पर हावी हो गई. मेरी एक दोस्त ने फोन करके मुझसे पूछा कि तुम कहा हो? मैं कुछ बोलता कि उससे पूर्व ही उसने मुझे यह फतवा सुना दिया कि जहां भी हो, घर जाओ, ज़्यादा हिरो बनने की ज़रूरत नहीं है…. मेरी मां मुझसे रो कर पूछ रही थी कि तुम कैसे हो… ज़्यादा काबिल मत बनो… चुपचाप कल की ट्रेन से वापस घर आ जाओ… दिल्ली में अब पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है…

मैं भी अजीब तरह की उलझनों में था बार-बार अपने भविष्य के बारे में ही सोचता रहा कि आखिर हमारा भविष्य क्या होगा? मैं इसी चिंता में डरे सहमे अपने दोस्त के कमरे में बैठा टेलीविज़न देख रहा हूं. मेरी तरह मीडिया भी इसे दिल्ली पुलिस की सबसे बड़ी कामयाबी मान रही थी, लेकिन इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि यहां लोग इस कामयाबी पर दिल्ली पुलिस की पीठ थपथपाने को तैयार हैं या नहीं और बार-बार 13 सितम्बर के दृश्य दिखाए जा रहे थे. जब दिल्ली में सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे. लगभग 25 मिनट के भीतर ही एक के बाद एक हुए पांच धमाकों से दिल्‍ली थर्रा उठी थी. उन धमाकों से सत्ता के गलियारे भी दहल उठे थे. केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से जवाब देते नहीं बन रहा था. मीडिया ने भी इन पर जबरदस्त दबाव बनाया. दिल्ली के विस्फोटों के बाद तीन घंटे में तीन कपड़े बदलने को लेकर गृहमंत्री के ‘मीडिया ट्रायल’ ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को बेहद सचेत कर दिया था. शिवराज पाटिल की कुर्सी खतरे में पड़ गई थी. तब दिल्ली पुलिस ने आतंक के सौदागरों को पकड़ने के लिए कमर कसी और छह दिन के अंदर ही सामने आया बटला हाउस एनकाउंटर… मैं यह सोच रहा था कि चलो अब शायद शिवराज पाटिल जी की कुर्सी ज़रूर बच गई. ज़रा सोचिए! यह कितनी अजीब बात है कि साढ़े चार साल में तरह-तरह के सूट बदलने और शानदार हेयरस्टाइल के अलावा तो उनका कोई काम लोगों को याद नहीं. दिल्ली में हुए विस्फोटों के बाद चौतरफा निशाने पर आए पाटिल 19 सितम्बर को काम करने में व्यस्त रहे. भले ही प्रधानमंत्री आंतरिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर आयोजित बैठकों में उन्हें न बुला रहे हों और उनकी जगह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार या प्रणव मुखर्जी शिरकत कर रहे हों, फिर भी गृहमंत्री आज काम रहे थे और अब खास तौर से दिल्ली की सुरक्षा समीक्षा पर उनका खासा ध्यान था. सुबह ही उन्होंने पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व पुलिस कमिश्नर वाईएस डडवाल के साथ अपने घर बैठक की थी. इसके बाद पहली बार पुलिस मुख्यालय की तरफ रुख किया. उधर वह मुख्यालय पहुंचे और इधर बटला हाउस  में तथाकथित आतंकवादियों से पुलिस की मुठभेड़ हो गई. वाह… वाकई काम कर गए हमारे पाटिल जी.

एक बात और मेरे ज़ेहन में बार-बार आ रही थी. आख़िर क्यों इस एनकाउंटर के एक दिन पहले ही शाम में अबू-बशर को लाया गया और कई जगहों पर ले जाया गया. इस दिन देर रात तक जामिया नगर थाने में चहल-पहल क्यों थी. तभी मुझे याद आया कि कल मेरे एक दोस्त क़रीब रात के एक बजे उधर से गुज़र रहे थे तो उस चहल-पहल को देखकर वो परेशान हुए थे और उसी वक़्त मुझे फोन करके पूछा था कि क्या मामला है. मैंने उन्हें रोज़ के मामले की तरह का मामला समझा कर उन्हें सुला दिया. लेकिन मेरे दिल में कहीं-कहीं कुछ चल रहा था, क्योंकि अबू-बशर को जिन जिन जगहों पर ले जाया गया था, एक पत्रकार होने के नाते इसकी खबर मुझे शाम में ही मिल गई थी. बल्कि एक खबर के मुताबिक अबुल-फज़ल से एक लड़के को उठाया भी गया था, जिसकी जांच हम कई पत्रकारों ने 19 सितम्बर को ही किया था. वो वाक़ई गायब था और खबर सही थी. और हां! जब मेरे दोस्त का फोन आया था तो उनका यह भी कहना था कि पूरा इलाक़ा खामोश है. हर तरफ सन्नाटा है, जो रमज़ान में आम तौर पर नहीं होता है. मेरे ज़ेहन में उसी वक़्त यह ख्याल आया था कि कहीं यह किसी आफत के आमद के पहले ही खामोशी तो नहीं…

इधर मेरे दोस्त कल की ट्रेन से घर वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं. रमज़ान में पूरी रात गुलज़ार रहने वाला यह इलाक़ा आज सूनसान पड़ा हुआ था. लोग घरों में तरह-तरह की बातें कर रहे थे. सबकी अपनी-अपनी कहानी थी. अपने-अपने सवाल थे. हम भी इन्हीं सवालों के उलझनों में फंसे हुए थे. मीडिया ने भी तरह-तरह की कहनियां पेश की.

 

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