Hare Ram Mishra for BeyondHeadlines
लखनऊ होकर हावड़ा जाने वाली साप्ताहिक गाड़ी में, चूरू से सवार होकर हम लखनऊ आ रहे थे. गाड़ी लगभग समय से ही चल रही थी. अन्य यात्रियों की तरह हमने भी अपने घर से ही पानी की एक खाली बोतल साथ रख ली थी. जिसमें यात्रा के बीच के स्टेशनों पर लगी पेयजल की टोंटिओं से, गाड़ी रुकने पर हम दौड़कर बोतल में पीने का पानी भर लेते थे. वही पानी रास्ते में हम पीते हुए लखनऊ आ रहे थे. जून के महीने की भयंकर गर्मी और उस पर भारतीय रेल की जनरल बोगी, जिसमें भीड़ की रेलम पेल हो, में यात्रा करना एक ऐसा अनुभव है जिस पर एक उपन्यास लिखा जा सकता है.
बहरहाल, नदी नालों को कूदती फांदती हमारी गाड़ी सरपट अपने गंतव्य पर दौड़ती चल जा रही थी. चूंकि भीड़ ज्यादा थी लिहाजा हमारे डिब्बे में वेंडर और भिखारी भी प्रवेश नहीं कर पा रहे थे. बोगी में मौजूद यात्रियों के बीच कभी मनमोहन सिंह और देश में फैले घपले घोटालों को लेकर चर्चा होती तो कभी तो कभी कोई युवा फेसबुक पर मनमोहन और सोनिया गांधी के रिश्तों को लेकर क्या कमेंट और पोस्ट हो रहे है पर लाइव कमेंटरी करता. कुल मिलाकर सारी बोगी के लोग थोड़ी बहुत चिल्ल-पों के बाद अपने अपने स्थान पर सेट हो गये थे और चर्चा में व्यस्त थे.
हमारी गाड़ी ने लगभग दो बजे दिल्ली कैंट स्टेशन पर रेंगना शुरू कर दिया, और बोगी में सवार लोग पटरी के किनारे झुग्गी झोपड़ी में रह रहे परिवारों को, उनके नारकीय जीवन को बोगी में लगी खिड़कियों एक टक देख रहे थे.
बाधाओं को पार करती हुई रेंगते-रेंगते हमारी गाड़ी लगभग तीन बजे दोपहर में दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म दस पर खड़ी हो गयी. गाड़ी के खड़ी होते ही हमारी बोगी से कई लोग खाली बोतल लेकर स्टेशन पर लगी पीने के पानी की टोंटियों की ओर दौड़ पड़े. टोंटियां दर टोंटियां जांची जाने लगी. किसी में भी पानी की एक बूंद नही निकली. हम सब थक हार कर निराश हो गयें. अब क्या हो सकता है? पानी तो चाहिए ही? बिना पानी के सफर किस तरह हो सकेगा?
भीड़ से अटी बोगी में पानी के सहारे ही बैठा जा सकता है. लेकिन देश की राजधानी के इस स्टेशन पर तो पीने के पानी का गहरा संकट है. टोटियों ने जवाब दे दिया. मैंने डिब्बा बंद पानी खरीदने का निश्चय किया. थोड़ी देर में ही खान पान के स्टॉल पर पहुंच गया. पानी का बोतल मांगा. दुकानदार ने जवाब दिया- बीस रुपये निकालो? मैंने उसे पैसे दिये और उसने मुझे बोतल दे दी. बोतल पर अंकित अधिकतम खुदरा मूल्य पन्द्रह होने पर मैंने पांच रुपये वापस मांगा. उस दुकानदार ने मुझसे बोतल ही वापस मांग लिया और मुझे बीस रुपये वापस कर बोला- आप कहीं दूसरी जगह से बोतल खरीद लो? मैंने देखा कि उसने बोतल एक दूसरे ग्राहक को उसी वक्त बीस रुपये में बेच दिया. मैं समझ गया कि दुकानदार के इस कान्फिडेंस का सीधा मतलब यह है कि पानी का बोतल किसी भी स्टॉल पर सस्ता नहीं मिलेगा.
मैंने दूसरे स्टॉल का रुख किया वहां भी पानी की बोतल प्रिंट दाम से ज्यादा की मिली. मैंने उसे बीस रुपये अदा करके एक बोतल पानी खरीद लिया. और वापस आकर अपनी बोगी में बैठ गया.
मेरे मन में पूरे रास्ते भर यह सवाल कौंधता रहा कि क्या इस देश के आम नागरिक को मजबूरन पानी को खरीदकर पीना पड़ेगा. क्या देश की राजधानी दिल्ली की स्थानीय सरकार तथा रेलवे विभाग की यह जिम्मेदारी नही है कि वो इस स्टेशन पर पीने के साफ पानी का इंतजाम आम रेल यात्रियों के लिए करें?
दरअसल आज पूरी सरकार ही आम आदमी के कल्याण के लिए उसकी मूलभूत समस्याओं के सवाल पर चौतरफा घिरी हुई है. उसे आम जनता समस्याओं से कोई मतलब नहीं है. यह बहुत हद तक संभव है कि स्टेशन के स्थानीय दुकानदारों ने रेलवे के अधिकारियों को इस बावत पटा लिया होगा कि वे स्टेशन पर मुफ्त के पानी का एक ऐसा कृत्रिम संकट पैदा करें जो गर्मियों में सफर कर रहे यात्रियों को डिब्बा बंद पानी के उपयोग को मजबूर करे. शायद पांच रुपये प्रति बोतल लिया जा रहा अतिरिक्त दाम इसी का प्रतिफल था.
वजह चाहे जो भी हो यह संकट इस बात का गंभीर संकेत था कि भविष्य में रेलवे के स्टेशनों से पीने के पानी की टांटिंया उखाड़ दी जायेंगी जिससे देश के जल का व्यापार भी मल्टीनेशनल कम्पनियां अपने लाभ के लिए कर सकें. स्टेशन पर पैदा किया गया यह संकट शायद इसी का एक रिहर्सल था.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं.)