Ashish Kumar Anshu for BeyondHeadlines
आप भूले नहीं होंगे. बात अगस्त 15 की ही तो है. आजादी का जश्न मनाते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री ने भूज की तरक्की का जिक्र किया था और उन्होंने देश भर के लोगों को भूज आने का न्योता भी दिया था. इस न्योते ने भूज (गुजरात) जाने के लिए प्रेरित किया.
बारह साल पहले गणतंत्र दिवस के दिन 26 जनवरी 2001 को भूज में भयानक तबाही आई थी. उस भूकम्प में लगभग 19000 लोगों की मृत्यु हुई. 167000 लोग घायल हुए. एक अनुमान के अनुसार, इस भूकम्प में गुजरात का 22000 करोड़ का आर्थिक नुक्सान हुआ था. अब भूज उस आपदा से निकलने की कोशिश कर रहा है.
उसी आपदा में भूज का एक कस्बा चित्रोड़ भी प्रभावित हुआ था. इसी चित्रोड़ में शांतिबेन प्रेमजी से मुलाकात हुई. उनके पति दिहाड़ी मजदूर हैं. मुश्किल से घर का खर्च चलता है. पुराना घर जब भूकम्प की भेंट चढ़ गया. पुराने घर के मलबे पर झोंपड़ी बनाकर शांति बेन आज भी अपने छह बच्चों के साथ रहती है. उनके नाम पर पुनर्वास में एक घर हैं, लेकिन नाम होने से क्या होता है? वे जब अपना अधिकार मांगने जाती हैं. उन्हें समझा दिया जाता है कि उनके नाम का कोई घर नहीं है. दलित समाज से ताल्लुक रखने वाली शांति बेन के पास ना अब लड़ने का साहस बचा है और ना ही इतना संसाधन है. पति की दिहाड़ी मजदूरी से मुश्किल से घर चल पाता है. बकौल शांति बेन ‘अब हम घर मिलने की उम्मीद छोड़ चुके हैं.’
Video: http://www.youtube.com/watch?v=u2iz2UlBIl4
कच्छ जिलान्तर्गत आने वाला गांव चित्रोड़ रापड़ ताल्लुका में आता है. यह गांव कच्छ में आए भूकम्प के बाद मलबे में तब्दील हुआ था. इस वजह से पूरे गांव का पुनर्वास हुआ. पुनर्वास के कागजों से गुज़रते हुए और पुनर्वास के गांव में घुमते हुए कई तरह की गड़बड़िया सामने नज़र आई.
गांव के धर्मेन्द्र कांजी भाई प्रजापति कहते हैं- पुनर्वास में 604 मकान बनाए गए. जबकि जो गांव भूकम्प से प्रभावित हुआ था, उसमें 450 मकान ही थे. इसका मतलब 150 मकान ज़रूरत से अधिक बने. 450 में भी कई लोगों ने मुआवज़े की रक़म ले ली थी. उनके लिए मकान बनने का कोई सवाल ही नहीं था. धर्मेंन्द्र के अनुसार पुनर्वास के गांव में कई ऐसे लोगों को भी घर मिला जिनका वहां घर ही नहीं था. जो यहां पढ़ाने आए थे, नौकरी कर रहे थे या फिर जिनको मकान बनाने की जिम्मेवारी मिली थी, उस एनजीओ से ताल्लुक रखते थे. धर्मेन्द ने आरटीआई के माध्यम से काफी जानकारी निकाली है. आरटीआई के आधार पर उन्होंने कहा- यहां एक एक ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिन्होंने एक दर्जन मकान ले लिए हैं. अपने परिवार के अलग-अलग लोगों के नाम पर. जिनका यहां का राशन कार्ड नहीं था, ऐसे लोगों ने ना सिर्फ घर पर कब्जा किया बल्कि उन्हें बिजली का मीटर भी मिल गया.
चित्रोड़ के पुनर्वास कॉलोनी में जातिवाद साफ नज़र आता है. यहां नया मकान देने का आधार यह बिल्कुल नहीं था कि जैसा पुराना मकान था. वैसा नया मकान मिलेगा. यहां तीन तरह के मकान नज़र आए. जिसे जाति के आधार पर बांटा गया. इस कहानी का सबसे दुखद हिस्सा यह है कि दो-ढाई सौ घर ज़रूरत से अधिक बनने के बाद भी एक दर्जन लोग घर पाने से वंचित रह गए. कुछ थक कर भूल गए अपना घर.
Video: http://www.youtube.com/watch?v=mrS9dmDBFTY
नवीन चन्द्र बाइलाल जोशी जो समोसे बेचकर अपना घर बड़ी मुश्किल से चला पाते हैं. वे दस साल तक भंसाली ट्रस्ट के चक्कर काटते रहे और उन्हें हर बार यह कहकर वापस कर दिया जाता था कि उनका नाम सूची में नहीं है. भंसाली ट्रस्ट के जिम्मे ही यहां के पुनर्वास का काम था. वे हार गए थे और हर महीने अपना घर होने के बावजूद किराए के घर में रहने को मजबूर थे. उन्हें सूचना के अधिकार से ही यह जानकारी मिली की उनका नाम सूची में है. दस साल बाद उन्होंने मिले कागज के दम पर अपने ही गांव में लड़ाई लड़ी और उन्हें अपना घर मिला. इससे पहले जोशी ने दस साल किराए के मकान में काट दिए. पत्नी के गहने भी उन्हें बेचने पड़े़. जब उन्हें घर मिला, उनके घर में तीन मीटर लगे हुए थे. उन मीटरों का बिल जोशी को चुकाना पड़ा. इन तीन मीटर में एक मीटर था, वीरेन्द्र सिंह का, जिन्हें जानकारी भी नहीं थी कि उनके नाम से कोई घर भी अलॉट कर किया गया है.
पुनर्वास कॉलोनी में घर अलॉट करने का तरिका भी अनोखा था. जो जिस घर में चला गया, वह उसका घर. आज भूकम्प के इतने सालों के बाद भी पुनर्वास कालोनी में किसी के पास अपने घर का कागज नहीं है. ना ही यह घर रहने वाले के नाम से अलॉट है. रहने वाला ना इस घर के नाम पर लोन ले सकता है और ना ही इसे कानूनी तौर पर बेच सकता है.
इस वक्त धमेन्द्र 23 साल के हैं. भूकम्प के साल वह 11-12 साल के थे. वह इस बात से हैरान है कि जिनके नाम पर घर अलॉट हुए हैं. उनमें उनके स्कूल के दोस्तों के नाम भी शामिल हैं. धर्मेन्द्र को भी बताया गया था कि उनका नाम लिस्ट में नहीं है. उन्होंने भी अपना हक़ लड़कर छह-सात साल के बाद लिया. यानी जो लड़ सकते थे, उन्होंने अपना घर ले लिया लेकिन ऐसे लोग बिना घर लिए रह गए जो नहीं लड़ सकते थे.
भूज आने का निमंत्रण देने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री से क्या यह उम्मीद रखना गलत होगा कि वे भूज के भूकम्प के 12 सालों के बाद उसके पीड़ितों को न्याय दिलाएं. चित्रोड़ में हुई गड़बड़ियों की जांच कराए. क्या पता कोई बड़ा घोटाला ही सामने आ जाए.