Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि अरविंद केजरीवाल टिकने नहीं जा रहे हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी की बात नहीं. राजनीति में टिकने की बात है. अरविंद वक्त विशेष की देन हैं. परिस्थिति विशेष की देन हैं. झल्लाई, झुंझलाई, त्रस्त जनता ने बदलाव के एक उन्माद में उन पर भरोसा कर लिया है. अरविंद का उभरना एक उन्माद जैसा ही है, जिसे उमड़कर, घुमड़कर एक ऊंचाई विशेष तक जाना है और फिर इतिहास में खो जाना है.
आदर्श के बारे में एक बड़ी सटीक टिप्पणी है कि आप उसे हासिल नहीं कर सकते. अगर हासिल कर लिया तो फिर आदर्श कैसा? उसे सामने रखकर उसकी ओर बढ़ने की कोशिश की जाती है. उसे ओढ़ा नहीं जाता. क्योंकि ओढ़ना मुमकिन भी नहीं है. खालिश रेशम सा खोल होता है ये, जिसमें कोई गांठ नहीं पड़ सकती. हकीक़त से सामना होते ही एक झटके में सरक जाता है. अरविंद के इस खोल के सरकने का सिलसिला शुरू हो चुका है. कुछ दिनो में ये पूरा का पूरा सरक चुका होगा.
दरअसल दिक्कत यही है कि अरविंद जिन आदर्शों को ओढ़ने का दावा करते घूम रहे हैं, उनके समझौतों की चक्की में पिसने का सिलसिला शुरू हो गया है. आदर्शों की राह एकदम जार्ज बुश के भाषण जैसी होती है. या तो आप अमेरिका के साथ हैं या फिर उसके खिलाफ हैं. बीच का कुछ भी नहीं होता है. अरविंद ने सत्ता संभालते ही बीच के विकेट पर खेलना शुरू कर दिया है. सत्ता का खास चरित्र होता है, ये. वो बीच में ला ही देती है, और एक बार बीच में आए नहीं कि आप में और आपके घोषित विरोधियों में कोई अंतर नहीं रह जाता है.
अरविंद बीच में आ चुके हैं। और इसमें उनके किसी भी सहयोगी, दोस्त, रिश्तेदार, विरोधी, किसी का कोई हाथ नहीं है. अरविंद का खुद का बुना जाल है ये. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने आम जनता के सपनों को सत्ता की गद्दी तक पहुंचा दिया. पर सबसे बड़ी असफलता यही होनी है, कि ये सपने अरविंद के लिए सत्ता की सीढ़ी भर हैं, मंजिल नहीं… मंजिल तो सत्ता ही है… जो उन्हें मिल चुकी है. अब तो सपनों की टूटन और उनके बिखराव का क्रम शुरू होना शेष है…