Rajiv Sharma for BeyondHeadlines
आज़ादी के बाद पिछले 70 सालों में कांग्रेस की बागडोर कई बंटवारों के बावजूद हमेशा गांधी परिवार के हाथों में रही है और एक बार फिर 20 माह बाद अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर यह बागडोर सोनिया गांधी को सौंप दी गई.
जिस कांग्रेस से हम आज परिचित हैं उसमें यह बागडोर दो बार नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के हाथों में ज़रूर रही है और उनका क्या हश्र हुआ यह सभी जानते हैं. हां, जिन नरसिम्हा राव ने आर्थिक मजबूरियों के चलते इस देश को उदारवाद की राह पर डाला था, उसको वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने आगे बढ़ाया और उसके बाद वे दस साल देश के प्रधानमंत्री भी रहे.
हालांकि हालात ये भी रहे कि वे राहुल गांधी के लिए कभी भी अपना पद खाली करने को तैयार थे और उनके फ़ैसले राहुल गांधी सार्वजनिक मंचों पर फाड़ देते थे, शायद इसीलिए मनमोहन सिंह भी ऐसे प्रधानमंत्री थे कि कांग्रेस ने एक ऐसी परिषद का गठन किया जिसकी अध्यक्षा सोनिया गांधी थीं और सरकार के हर फ़ैसले पर अंतिम मुहर उनकी होती थी.
कांग्रेस में यह कशमकश लगातार चुनावी विफलताओं के बाद लंबे समय से चल रही है कि कांग्रेस का नेतृत्व किसके हाथों में हो? पिछले लोकसभा चुनाव में भारी पराजय और पार्टी के सिर्फ़ 52 सीटों पर सिमटने के बाद राहुल गांधी ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस को जल्द से जल्द उनका विकल्प ढूंढ़ लेना चाहिए. इसके लिए 10 अगस्त को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक भी बुलाई गई थी, लेकिन पता नहीं एकाएक कैसे 5 अगस्त को ही कार्य समिति की बैठक बुलाकर अंतरिम अध्यक्ष का कार्यभार सोनिया गांधी को सौंप दिया गया.
यहां यह भी याद रहे कि सोनिया गांधी पहले ही 20 वर्षों तक इस पद को सुशोभित कर चुकी हैं. उनके कार्यकाल में कई बड़े फ़ैसले भी हुए और मनमोहन सिंह लगातार 10 सालों तक देश के प्रधानमंत्री भी रहे. अब पता नहीं ये सारे फ़ैसले सोनिया गांधी के थे या मनमोहन सिंह के.
जब वाजपेयी की सरकार थी तो एक मनरेगा योजना लाकर ही उन्होंने सत्ता हासिल कर ली और अगले 10 सालों तक मनमोहन सिंह की सरकार चलती रही, लेकिन इस बार उनकी न्याय योजना पर किसी ने कान तक नहीं धरा.
सोनिया के अध्यक्ष रहते ही देश के डेढ़ दर्जन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं जो अब सिमटकर तीन-चार राज्यों तक ही रह गई हैं. सबसे बड़ी हैरानी इस बात पर है कि उनकी सेहत लंबे समय से ख़राब है और उन्हें संसद से और शायद एक रैली के बीच से भी अस्पताल जाना पड़ा था. अपने इलाज के लिए वे अमेरिका भी जाती रही हैं. फिर गांधी परिवार के नाम पर भी कांग्रेस की बागडोर उन्हें ही क्यों सौंपी गई?
असल में कांग्रेस की यह राजनीतिक जंग राहुल गांधी और कांग्रेस की बागडोर अपने हाथों में संभाले हुए बुजुर्ग नेताओं के बीच की जंग है. राहुल गांधी लंबे समय से यह कहते और कोशिश करते आ रहे हैं कि किसी तरह से कांग्रेस की बागडोर युवा नेताओं और कार्यकर्ताओं के हाथ में आए या रहे.
जैसे सचिन पायलट को राजस्थान में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और अब वे वहां के उपमुख्यमंत्री हैं. इसी तरह अख़बार बताता है कि राहुल गांधी के युवा खेमे ने कांग्रेस के अगले अध्यक्ष के तौर पर मिलिंद देवड़ा के हाथों सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम आगे बढ़ाए थे, लेकिन उससे पहले ही सोनिया गांधी को फिर से कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया.
बताया जाता है कि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की संभावित हार और पार्टी से नेताओं का पलायन रोकने के लिए उन्हें फिर से पार्टी की बागडोर सौंपी गई है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस के फ़ैसलों में सबसे ज्यादा चल किसकी रही है? राहुल गांधी की या उन बुजुर्ग और दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की जो हर हालत में कांग्रेस की बागडोर गांधी परिवार के हाथों में ही देखना चाहते हैं?
इस मसले पर एक पेंच और फंसा है कि इस पद पर यदि किसी युवा को ही बैठाना था तो फिर प्रियंका गांधी को ही कांग्रेस का अध्यक्ष क्यों नहीं बना दिया गया. उन्हें चुनाव के दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी ही नहीं बनाया गया, कांग्रेस का महासचिव भी बनाया जा चुका है. फिर इस पद के लिए उनके नाम पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी, क्योंकि बहुत सारे कांग्रेसी तो उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं.
इससे भी बड़ी बात यह कि डॉ. कर्ण सिंह और शशि थरूर जैसे कांग्रेसी दिग्गज भी उनके नाम का समर्थन कर रहे थे. फिर उन्हें कांग्रेस की बागडोर क्यों नहीं सौंपी गई? प्रियंका को चाहने वालों और उनमें इंदिरा की छवि देखने वालों के मन की भी हो जाती और कांग्रेस को एक युवा अध्यक्ष भी मिल जाता.
इसमें शायद यह पेंच फंसा है कि कांग्रेस के इन बुजुर्ग दिग्गजों के सामने शायद प्रियंका भी हल्की पड़ती हों और दूसरी बात यह कि शायद वह अपने भाई राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के आड़े नहीं आना चाहती. शायद यही वजह थी कि इस बार के चुनाव में भी वह कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए नहीं, भाजपा को हराने के लिए ही चुनाव प्रचार कर रही थीं. इस चुनाव में मोदी और भाजपा के मुद्दे और थे और वह बार-बार यही कहती रहीं कि मोदी नोटबंदी और जीएसटी के मुद्दों पर चुनाव लड़कर दिखाएं.
बेशक राहुल गांधी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के बाद कह चुके हैं कि इस बार लोकसभा में पहुंचे उनके 52 सांसद ही सत्ता पक्ष का सामना करने करने के लिए काफ़ी हैं और उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया है, लेकिन विकल्प के तौर पर सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया जाना एक ग़लत ही नहीं, कांग्रेस को पीछे ले जाने वाला फैसला है.
कहा तो यह जा रहा है कि इससे कांग्रेस को नई संजीवनी मिलेगी और पार्टी से पलायन रुकेगा, लेकिन पहले ही 20 साल कांग्रेस की बागडोर संभाल चुकी और लंबे समय से बीमार चल रही सोनिया गांधी अपनी पार्टी की नौका को कितने लंबे समय तक खै सकती हैं.
इसलिए राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड के किसी नेता पर भरोसा किया गया होता तो वह ज्यादा अच्छा होता. क्योंकि डिबेट में टीवी पर आए एक विद्वान को मैंने यह कहते सुना था कि चुनावों में तो हार-जीत होती ही रहती है और हर चुनाव जीतने के लिए ही तो नहीं लड़ा जाता, इसलिए सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाते समय यही सबसे पहले सोचा जाना चाहिए था कि पार्टी अध्यक्ष की कमान किसी ऐसे नेता को सौंपी जाए जो पार्टी का भविष्य नए सिरे से गड़ सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
