फ़ेक न्यूज़ के इस दौर में आज से क़रीब 102 साल बाद ये लिखा जा रहा है कि महात्मा गांधी भी 1918 में स्पैनिश फ्लू (इन्फ्लुएंजा) महामारी की चपेट में आए थे. उन्होंने भी अपने को भीड़ से अलग रखा था. कई दिनों तक गुजरात के साबरमती आश्रम में वह लोगों से अलग रहे. बीबीसी ने यहां तक लिख डाला, ‘गांधी और उनके सहयोगी क़िस्मत के धनी थे कि वो सब बच गए.’
ये बात सच है कि गांधी जी 1918 में बीमार पड़े थे. बल्कि ये कह सकते हैं कि मौत के मुंह से बचकर निकल गए. लेकिन वो इन्फ्लुएंजा के नहीं, बल्कि किसी और बीमारी के शिकार थे.
गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘उन दिनों मेरे आहार में मुख्यतः सिकी हुई और कुटी हुई मूंगफली, उसके साथ थोड़ा गुड़. केले वगैरा फल और दो-तीन नींबू का पानी, उतनी चीज़ें रहा करती थीं. मैं जानता था कि अधिक मात्रा में खाने से मूंगलफली नुक़सान करती है. फिर भी वह अधिक खाई गई. उसके कारण पेट में सहज पेचिश रहने लगी… खाने के बाद एक घंटा भी न बीता था कि ज़ोर की पेचिश शुरू हो गई…’
‘…रात नड़ियाद तो वापस जाना ही था. साबरमती स्टेशन तक पैदल गया. पर सवा मील का वह रास्ता तय करना मुश्किल हो गया. अहमदाबाद स्टेशन पर वल्लभ भाई मिलने वाले थे. वे मिले और उन्होंने मेरी पीड़ा ताड़ ली. फिर भी मैंने उन्हें अथवा दूसरे साथियों को यह मालूम न होने दिया कि पीड़ा असह्य थी.’
अपनी आत्मकथा में गांधी जी आगे लिखते हैं, ‘नड़ियाद पहुंचे. वहां से अनाथाश्रम जाना था, जो आध मील से कुछ कम ही दूर था. लेकिन उस दिन यह दूरी दस मील के बराबर मालूम हुई. बड़ी मुश्किल से घर पहुंचा. लेकिन पेट का दर्द बढ़ता ही जा रहा था. 15-15 मिनट से पाखाने की हाजत मालूम होती थी. आख़िर मैं हारा. मैंने अपनी असह्य वेदना प्रकट की और बिछौना पकड़ा. आश्रम के आम पाखाने में जाता था, उसके बदले दो मंज़िले पर कमोड मंगवाया. शर्म तो बहुत आई, पर मैं लाचार हो गया था. फूलचंद बापू जी बिजली की गति से कमोड ले आए. चिन्तातुर होकर साथियों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया. उन्होंने मुझे अपने प्रेम से नहला दिया. पर वे बेचारे मेरे दुख में किस प्रकार हाथ बंटा सकते थे? मेरे हठ का पार न था. मैंने डॉक्टरों को बुलाने से इंकार कर दिया. दवा तो लेनी ही न थी; सोचा, किए हुए पाप की सज़ा भोगूंगा. साथियों ने यह सब मुंह लटका कर सहन किया. चौबीस घंटों में तीस-चालीस बार पाखाने की हाजत हुई होगी…’
गांधी के उस दौर के पत्रों को देखने से पता चलता है कि गांधी कुछ दिनों तक बीमार रहे. इसी बीच गांधी का जन्म दिन भी आया और लोग उन्हें बधाई देने भी पहुंचे. गांधी आश्रम में लोगों से मिलते भी रहें और लोगों को पत्र भी लिखते रहे. साथ ही लोगों को इन्फ्लुएंजा से निजात पाने की तरीक़े भी बताते रहे.
गांधी जी ने 10 जनवरी, 1919 को अपने मित्र सी.एफ़. एण्ड्रयूज को पत्र लिखा, जिसे पढ़ने के बाद पता चलता है कि एण्ड्रयूज भी इन्फ्लुएंजा के शिकार हुए थे. गांधी जी इस पत्र में आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं —‘लगातार घूमने-फिरने के बावजूद तुम अपनी तन्दुरुस्ती इतनी संभालकर कैसे रख रहे हो…’
इससे पहले 11 अक्टूबर 1918 को गांधी जी ने गंगाबेन मजूमदार को पत्र लिखा था. इस पत्र में वो बता रहे हैं, ‘इस बीमारी में दो बातों की सावधानी रखने से शरीर को कम से कम ख़तरा रहता है, यह डॉक्टरों की राय है और वह सही है. तबीयत ठीक हो गई है ऐसा महसूस होने पर भी तरल और सुपच सादा भोजन करते रहना चाहिए और बिस्तर में लेटे रहना चाहिए. कई रोगी दूसरे-तीसरे दिन एकाएक बुख़ार उतर जाने से धोखा खाकर कामकाज करना और सामान्य भोजन करना आरंभ कर देते हैं. इससे बीमारी फिर ज़ोर पकड़ती है और ज़्यादातर प्राण ही ले लेती है. इसलिए मेरा प्रार्थना है कि तुम बिस्तर में ही आराम करो.’
इसी पत्र में गांधी जी ने यह भी बताया कि ‘अभी आश्रम में दस बीमार हैं.’ बता दें कि गंगाबेन मजूमदार एक उत्साही महिला थीं, जिन्होंने गांधी जी के अनुरोध पर बीजापुर में खादी उत्पादन केन्द्र की स्थापना की थी.