Masud Ahmad for BeyondHeadlines
इमरात हुसैन की दर्द भरी आखें साफ कह रही थी कि उनके आंखों में आज भी खौफ है और भविष्य की कई सारी चिंताएं भी… आसाम में हुये दंगे जब-जब उन्हें याद आते हैं, वह रोते हुये अपने बच्चे के बारे में सोचने लगते हैं.
इमरात का कहना है कि जब हमारे ऊपर हमले हुए, मैं उस वक्त कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ये अचानक हो क्या रहा है. बाहर हो रहे हमले से मेरा पूरा परिवार बेचैन हो गया. हम लोग किसी तरह अपने बच्चों के साथ घर के एक कोठरी में जा छिपे. थोड़ी देर बाद कुछ लोग वहां आये. हमलोग पूरी तरह से सहम गए थे. हमें लगा कि अब हमारा ज़िन्दा रह पाना मुमकिन नहीं है. पर अल्लाह का करम हुआ कि वो लोग घर को खाली समझ कर चले गये. हम घंटों डरे-सहमे उसी कोठरी में दुबके रहे. जब हमें यह अहसास हुआ कि अब शायद बाहर कोई नहीं है तब हम फौरन पास के एक मास्जिद में चले गये. जहां हमारे जैसे तमाम परिवार के लोग मौजूद थे.
आज भी यह सारा परिवार कोकराझार के ज्योमा कैम्प में हैं. इस कैम्प में अभी भी 135 परिवार रह रहा है. जिनकी आंखों से डर व खौफ अभी भी झलकता है.
कैम्प के ज़मीन के मालिक अब्दुल करीम शेख व अब्दुल कादिर का कहना है कि दंगे के बाद से यह लोग यहीं रह रहे हैं. इन लोगों के रहने से मुझे काफी नुक़सान हो रहा है. लेकिन क्या करें? अब हमने इन लोगों को 2 साल का समय और दे दिया है.
कैम्पों में रह रहे इन परिवार के लोगों को अब भी समझ में नहीं आ रहा है कि जाये तो कहां जायें? कैम्प में रह रहे वासिद का कहना हैं कि उनका घर दुसरे समुदाय की तरफ है. मेरी लड़की बड़ी हो गई है. मैं अब वहां जाने से डरता हूं. अपनी लड़की के साथ वहां रहना नहीं चाहता.
कैम्प में सिर्फ मर्द व औरते ही नहीं, बल्कि 193 बच्चें भी हैं. और उन बच्चों के शिक्षा के लिए सरकार द्धारा कोई योजना नहीं है. और न ही पास में कोई स्कूल है, जिससे उनके बच्चे अपने भविष्य के लिए शिक्षा प्राप्त कर सकें. हालांकि इस कैम्प में ‘रेहाब इंडिया फाउनडेशन’ नामक गैर-सरकारी संस्था एक कोचिंग सेन्टर ज़रूर चला रही है, जिसमें कुछ अध्यापक वहां के बच्चों को 2 घंटे की शिक्षा देते हैं.
कैम्पों में बुनियादी सुविधाओं की ओर भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया है. रेहाब द्वारा ही लगाए गये पानी के एक नल से 135 परिवार जीवन गुजार रहा है.
कैम्प में रह रहे अकरीमा बेगम का कहना है कि यहां आसपास कोई काम नहीं है. मेरे पति दूसरे राज्य कमाने के लिए गए थे. वहां बीमार हो पड़ गए. ऐसे में वहां से लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था. और यहां न तो कोई रोज़गार है न ही खेती के लिए कोई ज़मीन.
अब समझ में नहीं आता कि हम क्या करें? बेचारे बीमारी के आलम में भी दूसरे खेत में काम करके किसी तरह से 70-80 रूपये कमा पाते हैं. किसी दिन वो भी नहीं. वो यह भी बताती है कि यहां पर कोई स्वास्थ केन्द्र भी नहीं है, जिसमें मेरे पति या यहां पर रह रहे बीमार लोगों का इलाज हो सके.
ज़रा सोचिए! जब यह कैम्प 2 साल में बंद हो जायेगा तो यह बेचारे कहां जायेंगे? यहां के मासूमों का क्या भविष्य होगा? इन सवालों का जवाब तो उपर वाला ही बेहतर जानता है. फिलहाल तो यह बेचारे खून के आंसू रो रहे हैं और स्वच्छ व स्वस्थ भारत का सपना देखने वाली सरकार या क़ौम के तथाकथित रहनुमाओं को इनसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है….