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‘ज़रूरत इस बात की है कि संविधान में यक़ीन रखने वाले लोग एकजूट हों…’

दिल्ली से अपने घर सहारनपुर लौट रही थी. ट्रेन में मेरी सीट के ठीक सामने एक मराठी परिवार पहले से मौजूद था. वो लोग मुम्बई से मनाली ठंड का मज़ा लेने जा रहे थे. वहीं दूसरी तरफ़ एक सिख परिवार अमृतसर के सफ़र पर था.

अभी दिल्ली से ट्रेन चली ही थी कि थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद हमारी बातचीत शुरू हुई. हम सब एक दूसरे से रूबरू हुए. इनकी संस्कृति और इनके इलाक़े की भूगोल जानने में मेरी दिलचस्पी थी. बात उनके पकवानों तक पहुंच चुकी थी. मैं उनकी बातों को बेहद ग़ौर से सुन रही थी.

लेकिन इसी दौरान उन्होंने मुझसे मेरे हिजाब के बारे में सवाल किया कि मुस्लिम लड़कियां हिजाब क्यों पहनती हैं? क्या हिजाब और बुर्का पहनना ज़रूरी होता है?

मैंने उन्हें बताया कि हमारे मज़हब इस्लाम में मर्द और औरत दोनों के लिए कुछ सीमाएं तय की गई हैं. औरतों के लिए कहा गया है कि जब वो घर से निकलें तो अपने सरों और सीनों को ढाक लें. इसी तरह मर्दों को भी हुक्म दिया गया कि अपनी निगाहों को नीचा रखें…

वो मेरी बातों को बहुत ग़ौर से सुन रहे थे. आगे बात करते हुए मैंने उन्हें बताया कि जैसा आज का दौर है, हम किसी और पर कोई पाबंदी नहीं लगा सकते हैं कि वो हमें न देखे. इसलिए हम खुद अपना बचाव करते हैं. अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं. वैसे ये हिजाब मेरी पहचान है कि मैं एक मुस्लिम लड़की हूं. मैं अपने ख़ुदा के आदेशों को मानती हूं. और ऐसा नहीं है कि ये हिजाब मेरी कामयाबी में कोई रुकावट बन रहा है, बल्कि ये मुझे कॉन्फिडेंट फ़ील कराता है.

मैंने अपनी दोस्त तूबा हयात ख़ान का उदाहरण देते हुए बताया कि मेरी ये दोस्त  हिजाब के साथ बहुत से पब्लिक स्पीकिंग कॉम्पटीशन, डिबेट कॉम्पटीशन, यूथ पार्लियामेंट में राष्ट्रीय स्तर पर अपने मुल्क भारत का नाम रौशन कर चुकी है. तूबा की तरह मेरे पास कई सारी हिजाबी लड़कियों की कहानियां थीं. मैं उन कहानियों को सुना रही थी और वो लोग बड़े ग़ौर से सुन भी रहे थे…

मुझे नहीं पता कि उन्हें मेरी बात किस हद तक समझ में आई. लेकिन सामने बैठे सिख परिवार को मेरा नाम और उसका मतलब काफ़ी पसंद आया. इस परिवार के मुखिया  हरप्रीत अंकल ने तो यहां तक कह दिया कि हमारी फ़ैमिली में आगे जब कोई बच्चा पैदा होगा तो हम उसका नाम यही रखेंगे…

मेरे लिए तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा. जहां एक ख़ास विचारधारा से संबंध रखने वाले कुछ लोग रंगों, फलों और जानवरों को सांप्रदायिक पहचान दे रहे हैं, वहीं एक परिवार अपने आने वाली बच्ची को मुस्लिम नाम देने की बात कर रहा है…

इन सब बातों के दरम्यान कब हमारे चार घंटे ख़त्म हो गए और मेरी मंज़िल आ गई, मुझे पता ही नहीं चला. 

अब मैं अपने घर पर हूं. लेकिन बार-बार मेरे ज़ेहन में ये ख़्याल दौड़ रहा है कि जिस गणतंत्र, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समाजवादी भारत की नींव 26 जनवरी 1950 को हमारे पूर्वजों द्वारा रखी गई थी वो अभी भी ज़िन्दा है. हां, चंद मुट्ठी भर लोग इसे तोड़ने की कोशिश में ज़रूर लगे हैं. वो भारत से विभिन्नता में एकता को ख़त्म कर देना चाहते हैं. वो पूरे मुल्क को एक रंग में रंग देना चाहते हैं.

लेकिन ज़रूरत है कि हम अपने देश में विभिन्नता में एकता को बनाए रखें. बस ज़रूरत इस बात की है कि अच्छी सोच-समझ और संविधान की प्रस्तावना ‘भारत के हम लोग’ में यक़ीन रखने वाले लोग एकजूट हों. यक़ीन रखिए, जिस दिन हम अच्छी सोच-समझ के लोग एकजूट हो गए, ये देश को हिन्दुत्व के रंग में रंगने की बात करने वाले लोग टिक नहीं पाएंगे.

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